भारतीय जनता पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के अपने फार्मूले के फेर में अपने पुख्ता सवर्ण जनाधार की अनदेखी कर रही थी। अब विधानसभा चुनाव उत्तर प्रदेश में सिर पर आ गया तो पार्टी को अपनी लापरवाही का ख्याल आया। वैश्य-ब्राह्मण मतदाताओं के नाराज होने का अहसास हुआ होगा तभी तो इन जातियों को पटाने के लिए भी अपने नेताओं की समितियां बनाने को भाजपा मजबूर हुई है। भाजपा वह पार्टी है जो अपने विरोधियों पर जाति की राजनीति करने का आरोप लगाते नहीं थकती।

भारत के हिंदी क्षेत्रों बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तो जाति चुनावी लोकतंत्र की एक वास्तविकता है। ऐसी वास्तविकता जिसे स्वीकार करने से तो सारे दल कतराते हैं पर जोड़-तोड़ और ताना-बाना उसी के इर्द-गिर्द बुनते हैं। पहले जनसंघ और फिर भाजपा भी लंबे समय तक अगड़ी जातियों की ही पार्टी मानी जाती थी। बाद में कुछ पिछड़ी जातियां इससे जुड़ीं लोध, सैनी, कुर्मी आदि। नरेंद्र मोदी के उभार के बाद बेशक भाजपा ने पिछड़ी जातियों और अति पिछड़ी जातियों में तो विस्तार किया, राजपूत और ब्राह्मण जैसी जो अगड़ी जातियां कांग्रेस का परंपरागत आधार थीं, उन्हें भी मंदिर की राजनीति के सहारे अपना वोट बैंक बनाया।

पिछले रविवार को दिल्ली में केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के घर पर दिल्ली में जब भाजपा के उत्तर प्रदेश के प्रमुख ब्राह्मण चेहरे जमा हुए तो सियासी हलकों में खुसर-पुसर होना स्वाभाविक था। प्रधान को पार्टी ने उत्तर प्रदेश चुनाव का प्रभारी बना रखा है। उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा, मंत्री बृजेश पाठक, श्रीकांत शर्मा और जितिन प्रसाद, सांसद महेश शर्मा, हरीश द्विवेदी और शिव प्रताप शुक्ला आदि की मौजूदगी में सूबे के ब्राह्मण मतदाताओं के रुख, मुद्दों और नाराजगी दूर करने उपायों पर तीन घंटे तक मंथन हुआ। उसके बाद शिव प्रताप शुक्ला की अगुआई में एक समिति बनाने का फैसला हुआ। जिस पर अगले दिन पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपनी सहमति की मुहर लगाई।

ब्राह्मण मतदाताओं की यूपी में वास्तविक संख्या को लेकर भी भ्रम है। ब्राह्मणों के नेता दावा करते हैं कि दलितों और मुसलमानों के बाद वे ही सबसे ज्यादा यानी 15 से 16 फीसद हैं। पर पेच यह है कि यह आंकड़ा तय करते वक्त वे बढ़ई, उपाध्याय, महापंडित, अचारज, जोगी, पांचाल, विश्वकर्मा और खाती जैसी जातियों को भी जोड़ लेते हैं। जिनकी पिछड़ी जातियों में गिनती होती है। साफ है कि ब्राह्मण आठ फीसद के आसपास होंगे।

जहां तक ब्राह्मणों की भाजपा से नाराजगी की आशंका का सवाल है, इसमें अतिरेक नहीं है। इसकी वजहें कई हैं। कांग्रेस राज में उत्तर प्रदेश में कई ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने पर अब वैसी स्थिति नहीं है। भाजपा के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल के मुख्यमंत्री राजपूत हैं तो मध्य प्रदेश, कर्नाटक व गुजरात के पिछड़े। केवल गोवा और असम के मुख्यमंत्री ही ब्राह्मण हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के शासन में नौकरशाही को अहम पद देने के मामले में भी राजपूत ब्राह्मणों पर भारी साबित हुए हैं। बसपा के सतीश मिश्र ने पिछले दिनों जगह-जगह ब्राह्मण सम्मेलन कर भाजपा पर ब्राह्मणों की उपेक्षा का आरोप लगाया था। यह बात अलग है कि बसपा व कांग्रेस के कई प्रमुख ब्राह्मण नेता पिछले कुछ दिनों में सपा में शामिल हो गए।

यही स्थिति वैश्य मतदाताओं की है। वे मोटे तौर पर हैं तो भाजपा के साथ पर सियासी उपेक्षा से बेचैनी उनमें भी कम नहीं है। उन्हें पटाने का बीड़ा भाजपा में सूबे के मंत्री नंदगोपाल गुप्ता उर्फ नंदी ने उठाया है। वैश्यों की तादाद भी उतनी नहीं है जितनी इनके नेता बताते हैं। ये मतदाता चार-पांच फीसद से ज्यादा नहीं हैं। पर भाजपा की दुविधा यह है कि अगर कोर वोट ही छिटक गया तो सत्ता में वापसी मुश्किल हो सकती है। नाराज चल रहे ब्राह्मण मतदाता विरोध में न चले जाएं इसी जोखिम को देखते हुए तो भाजपा आलाकमान ने अजय मिश्र टेनी को केंद्रीय मंत्रिमंडल से नहीं हटाया।

ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने के लिए उन्हें चुनाव में पर्याप्त टिकट देने, अगड़ों को पहली बार 10 फीसद आरक्षण देने और मंदिर निर्माण जैसे मुद्दों पर फोकस करने की रणनीति बनाई गई है। भावनात्मक मुद्दों और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के तय मंत्र के साथ-साथ भाजपा जातियों की गोलबंदी को लेकर भी चौकस है।