Lok Sabha Chunav/Election Results 2019: देश में उत्तर से दक्षिण तक विपक्षी दलों ने कई तरह के गठबंधन बनाए और नेता वोटों के तालमेल के गणित लगाते रहे, जो जमीन पर जाकर बिखर गए। उत्तर प्रदेश, बिहार-झारखंड, कर्नाटक, तेलंगाना, हरियाणा समेत विभिन्न राज्यों विपक्षी गठबंधन सामने आया, लेकिन शरीक दल अपने मतदाताओं को एकजुट नहीं कर पाए।  दूसरी ओर, भाजपा ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर सुदूर पूर्वोत्तर तक गठबंधन को साधे रखा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा आगे कर ऐसे स्थानीय मुद्दों को हावी नहीं होने दिया, जो चुनावी समीकरण बिगाड़ सकते थे।

विपक्षी गठबंधन में कहीं यूपीए के सहयोगी दलों ने हावी होने की कोशिश की तो कहीं कांग्रेस ने अपनी अखिल भारतीय मौजूदगी का राग अलापा। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सपा-बसपा और रालोद एक साथ तो आए लेकिन कांग्रेस के बाहर रहने के कारण विपक्षी एका का संकेत नहीं जा पाया। बिहार में राजद के तेजस्वी यादव और झारखंड में झामुमो के हेमंत सोरेन व जेवीएम के बाबूलाल मरांडी ने यह संकेत देने की कोशिश की। बिहार में गठबंधन बनाते समय कांग्रेस अड़ी थी कि वह 12 से कम सीटों पर नहीं लड़ेगी। बाद में राजद ने अपनी सात और कांग्रेस ने तीन सीटें छोड़ी।

बिहार की तरह ही झारखंड में भी चार पार्टियों का गठबंधन बनाना आसान नहीं था। कांग्रेस, झामुमो, जेवीएम और राजद के बीच टकराव के कई कारण थे। भाजपा को रोकने के एजंडे पर चारों पार्टियां साथ आर्इं। राजद ने एक की बजाय दो सीट पर अपना उम्मीदवार उतार दिया। झारखंड में राजद और कांग्रेस ने जमशेदपुर और गोड्डा से अपना दावा छोड़ा, लेकिन स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर नहीं कर पाए।

दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच लंबे समय तक चलीगठबंधन की बातचीत टूट गई। दोनों का अलग-अलग लड़ना भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ। दिल्ली की वजह से ही भाजपा को पूरे देश में प्रचार का मौका मिला है कि विपक्ष बंटा हुआ है। यही हाल हरियाणा में रहा। वहां आम आदमी पार्टी ने जननायक जनता पार्टी से तालमेल किया। कांग्रेस अलग लड़ी। नतीजा यह कि हरियाणा में मुकाबला बहुकोणीय हो गया और भाजपा को जबरदस्त फायदा हुआ।

बंगाल में विपक्षी दलों ने जनसभा कर एका का प्रदर्शन किया, लेकिन चुनावी मैदान में स्थानीय राजनीतिक गणित को देखते हुए तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और वामदल अलग-अलग लड़े। राजनीतिक हिंसा से पीड़ित कांग्रेस और वाम मोर्चा के कार्यकर्ताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा में चला गया और भाजपा का वोट फीसद 17 से बढ़कर 39 फीसद तक पहुंच गया। ममता की तृणमूल का वोट फीसद 39 से बढ़कर 43 हो गया, लेकिन वे प्रदेश में भाजपा की 19 सीटों की सुनामी नहीं रोक पार्इं। कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (सेकु) गठबंधन ढेर हो गया। कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से भाजपा को 23 सीटें, यानी पहले से छह ज्यादा मिलती दिख रही हैं।

तुलनात्मक रूप से देखें तो भाजपा ने सधे अंदाज में गठबंधन को अंजाम दिया। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने विरोधियों को मना लिया। महाराष्ट्र में भाजपा के साथ पनपी कड़वाहट भूलकर शिवसेना एक साथ चुनाव में खड़ी दिखी। बिहार में भाजपा ने 2014 में जीती गई 22 सीटों के बजाय सिर्फ 17 सीटों पर चुनाव लड़ने पर सहमति दे दी। भाजपा ने पूर्वी भारत में कई दलों के साथ गठबंधन कर जीत सुनिश्चित की। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के गठबंधन की सुगबुगाहट शुरू होने से पहले ही भाजपा ने राज्य में 50+ वोटों के लिए कोशिश शुरू कर दी थी। पार्टी ने राज्य में केंद्र की जनहित योजनाओं का पूरा प्रचार किया और यह कोशिश की कि उसका लाभ सभी को मिले। पार्टी की यह रणनीति काम कर गई।

अगर विपक्षी दलों ने लोकसभा चुनाव के पहले ही तालमेल करके उम्मीदवार तय किया होता और एक मंच पर आकर चुनाव प्रचार किया होता तो विपक्षी दलों की स्थिति थोड़ी बेहतर होती।
– दिनेश त्रिवेदी, नेता, तृणमूल कांग्रेस

एकमात्र वजह विपक्ष का विभाजन है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विपक्ष की एकता को कांग्रेस ने धराशायी कर दिया।
– अतुल कुमार अंजान, भाकपा महासचिव

चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी, स्टालिन और शरद पवार जैसे नेता बेहतर तालमेल के लिए प्रयास कर रहे थे। इससे प्रतिपक्ष में बौखलाहट दिखी। हम अपनी कमियों की समीक्षा करेंगे।
– राज बब्बर, कांग्रेस के नेता