उग्रवाद प्रभावित मणिपुर की महिलाओं को देश को दूसरे राज्यों के मुकाबले अपने अधिकारों के प्रति जागरूक समझा जाता है। देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की नजरों में यहां महिलाओं की स्थिति बेहतर है। देश में अपनी किस्म का अकेला महिला बाजार ईमा मार्केट भी यहीं हैं। वहां दुकान की मालिक और दुकानदार महिलाएं ही हैं, लेकिन राजधानी इंफल के आसापास के इलाकों में घूमने के बाद यह बात मिथक ही लगती है। यहां भी महिलाएं घरेलू हिंसा के अलावा, एचआइवी, सामूहिक बलात्कार, हत्या और अब मानव तस्करी की शिकार हैं। मतदाताओं की संख्या के लिहाज से पुरुषों पर भारी पड़ने के बावजूद राजनीति में महिलाएं अब तक बेचारी ही साबित होती रही हैं।
राज्य की 60 विधानसभा सीटों के लिए अगले महीने दो चरणों में होने वाले चुनावों में किस्मत आजमाने वाले 266 उम्मीदवारों में से महज दस महिलाएं हैं। इनमें से पहले दौर में चार मार्च को होने वाली 38 सीटों के लिए पांच महिलाओं सहित 168 और दूसरे दौर में आठ मार्च को बाकी 22 सीटों के लिए 98 उम्मीदवार हैं। इनमें से पांच महिलाएं हैं। दिलचस्प बात यह है कि राज्य में बीते 15 साल से सरकार चलाने वाली कांग्रेस ने भी इस बार सिर्फ दो महिलाओं को ही मैदान में उतारा है और सत्ता की प्रमुख दावेदार के तौर पर उभरी भाजपा ने भी दो को ही टिकट दिया है।
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के 24 उम्मीदवारों में सिर्फ दो महिलाएं हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला की पीपुल्स रीसर्जेंस एंड जस्टिस अलायंस यानी प्रजा तीन सीटों पर लड़ रही है। इनमें से दो महिलाएं हैं। पहली तो खुद इरोम हैं और दूसरी राज्य की अकेली बाकी पेज 8 पर उङ्मल्ल३्र४ी ३ङ्म स्रँी 8
मुसलिम उम्मीदवार नजीमा बीबी है। नजीमा चुनाव मैदान में उतरने वाली पहली मणिपुरी मुसलिम महिला हैं। उसे भी इलाके के मौलवियों ने मौत के बाद कब्र के लिए दो गज जमीन तक नहीं देने की धमकी दी है। चुनाव मैदान में उतरना ही उसका एकमात्र कसूर है।
मणिपुर की राजनीति में महिलाओं की भूमिका अब तक नगण्य ही रही है। 2007 के चुनाव में महज एक महिला ओ लांधोनी देवी ही चुनाव जीत सकी थीं। वह भी इसलिए कि वे मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह की पत्नी थीं। चुनाव मैदान में उतरीं बाकी छह महिलाओं की जमानत तक जब्त हो गई थी। इसके बाद 2012 में हुए चुनावों में तीन महिलाएं जीती थीं। 1972 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद मणिपुर को पहली महिला विधायक के लिए 18 साल तक इंतजार करना पड़ा था। विडंबना यह है कि अब तक जितनी भी महिलाएं यहां चुनाव जीती हैं उनमें उनके पति के राजनीतिक रसूख का बड़ा असर रहा है।
प्रदेश कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि पार्टी को चार महिलाओं की उम्मीदवारी का आवेदन मिला था। उनमें से जीत सकने लायक दो उम्मीदवारों को टिकट दिया गया। उनका दावा है कि मणिपुर की महिलाओं में राजनीति में खास दिलचस्पी नहीं है। कांग्रेस और भाजपा में बाकी तमाम मुद्दों पर भले मतभेद हों, कम से कम इस मामले में उनकी राय लगभग एक जैसी ही है। प्रदेश भाजपा के एक नेता कहते हैं कि हमने उम्मीदवारों की जीत की योग्यता को ध्यान में रखते हुए टिकट बांटे हैं। यहां राजनीति में महिलाओं की कोई दिलचस्पी नहीं है।
इरोम की प्रजा पार्टी के प्रवक्ता ईरेंडो लिचोनबाम कहते हैं कि हमने तीन में से दो महिलाओं को टिकट दिया है। वे कहते हैं कि भाजपा व कांग्रेस की सूची से साफ है कि यह दोनों पार्टियां राजनीति में महिलाओं को बढ़ावा देने के पक्ष में नहीं हैं। दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस की दलील है कि हिंसा व महिला उत्पीड़न की राजनीति की वजह से ही पार्टी ने ज्यादा महिलाओं को टिकट नहीं दिया है। पार्टी के नेता सम्राट तपादार कहते हैं कि हम ज्यादा महिलाओं को टिकट देना चाहते थे, लेकिन आतंक की वजह से महिलाओं में चुनाव के प्रति दिलचस्पी नहीं है।
मणिपुरी लेखक राजकुमार कल्याणजित कहते हैं कि राजनीति में बहुत कम महिलाएं राजनीति में आती हैं। उनमें से भी चुनाव जीतने वाली महिलाओं की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। राज्य में महिलाओँ की समस्या का कोई अंत नहीं है। गैर-सरकारी संगठन वूमेन एक्शन फार डेवलपमेंट (डब्लूएडी) की सचिव सबिता मंगसातबाम कहती हैं कि बाहरी लोग तो सोचते हैं कि मणिपुर की महिलाओं को काफी अधिकार मिले हैं, लेकिन हकीकत इसके उलट है। हम यहां सरकारी और उग्रवादी संगठनों जैसे दो पाटों के बीच पिस रहे हैं।

