Lok Sabha Poll 2019: जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस न केवल हिन्दी पट्टी राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश तेज करती जा रही है। इसके लिए जातीय और धार्मिक समीकरणों के सहारे सियासी रणनीति में बदलाव भी करती दिख रही है। छह महीने पहले तक जहां कांग्रेस सभी क्षेत्रीय दलों से दोस्ती के लिए बेकरार दिखती थी, वह अब कुछ राज्यों में एकला चलो की नीति पर चल रही है, जबकि कुछ राज्यों में वो नए दोस्तों की तलाश में है। दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और पुडुच्चेरी में तो कांग्रेस ने गठबंधन भी कर लिया है लेकिन पश्चिम बंगाल में पार्टी ने अब तक रुख स्पष्ट नहीं किया है। बता दें कि छह महीने पहले कर्नाटक चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस ने बिना मांगे जेडीएस को समर्थन दे दिया था और सरकार बनाने के लिए एचडी कुमारस्वामी की हर मांग मान ली थी। यानी छह महीने पहले कांग्रेस की सियासी स्थिति कमजोर और किंगमेकर की थी लेकिन तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में भाजपा से सत्ता छीनने के बाद कांग्रेस के तेेवर बदल से गए हैं।
मई 2018 में गोलबंदी के लिए थे बेचैन: एच डी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह मंच पर सोनिया और राहुल गांधी ने करीब दो दर्जन विपक्षी नेताओं का हाथ थामकर खिलखिलाते हुए तस्वीरें खिंचवाई थी, वह इस बात की तस्दीक कर रही थी कि कांग्रेस महागठबंधन की प्रबल हिमायती है लेकिन तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद उसकी प्राथमिकताएं और समीकरण बदल चुके हैं। इसकी बानगी इस साल के शुरुआत में दिखी जब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ कोलकाता में आयोजित ममता बनर्जी की मेगा रैली में शामिल होने से राहुल गांधी ने किनारा कर लिया और वहां मल्लिकार्जुन खड़गे को भेज दिया। दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार के खिलाफ बड़ी रैली की, लेकिन कांग्रेस उससे भी गायब रही। केजरीवाल ने तो यहां तक कह दिया कि वो गठबंधन के लिए कांग्रेस को मनाते-मनाते थक गए हैं।
विपक्षी खेमे के बड़े चेहरों से दूरी: कांग्रेस की नई राह का असर पटना रैली में भी दिखा। करीब 28 साल बाद पटना के गांधी मैदान में कांग्रेस ने मेगा रैली आयोजित की थी। इसमें कई दलों के नेता शरीक हुए थे लेकिन ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, शरद पवार जैसे विपक्षी खेमे के नेता उस मंच पर नहीं दिखे। 26 फरवरी को भी कांग्रेस ने गुवाहाटी में एक बड़ी रैली का आयोजन किया है। इस रैली में भी भाजपा विरोधी खेमा से कोई बड़ा नेता शामिल नहीं हो रहा है। पटना रैली में बिहार में गठबंधन के साझीदारों के अलावा कांग्रेस के ही तीन नए मुख्यमंत्री समेत कई नेता मौजूद थे। गुवाहाटी में भी ऐसा ही प्लान है। यानी कांग्रेस अपने बूते राज्यों में न केवल संगठन मजबूत कर रही है बल्कि लोगों को यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि वह अकेला चलने के लिए तैयार है।
मुस्लिम वोटरों में जगी आस: देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने एनडीए गठबंधन और सपा-बसपा की अगुवाई वाले महागठबंधन को भी प्रियंका गांधी की एंट्री करा चौंकाने की कोशिश की है। इनके अलावा कांग्रेस जयंत चौधरी पर डोरे डाल रही है। सपा से बगावत कर निकले शिवपाल यादव को भी साधने की रणनीति में जुटी है। हालांकि, कांग्रेस ने यूपी के महान दल से गठबंधन कर लिया है। इस दल के अध्यक्ष केशव देव मौर्य का पूर्वी यूपी के कुछ जिलों में अच्छा प्रभाव है, इसके अलावा मौर्य समुदाय में भी अच्छी पकड़ है। यानी कांग्रेस यूपी में गठबंधन के लिए नए साथियों की तलाश में है। माना जा रहा है कि प्रियंका गांधी द्वारा जमीनी हकीकत का आंकलन कर लेने के बाद कांग्रेस इस दिशा में कुछ ठोस कदम उठा सकती है। बिहार में जहां भूमिहार और मुस्लिम समुदाय का झुकाव कांग्रेस की तरफ बढ़ता दिख रहा है, वहीं यूपी में मुसलमानों का बड़ा तबका कांग्रेस की ओर लौटने लगा है। इनके अलावा कई पुराने कांग्रेसी भी वापसी कर रहे हैं। इससे सपा-बसपा गठबंधन के लिए असहज स्थिति उत्पन्न हो रही है।