Lok Sabha Election 2019: बड़बोले गिरिराज सिंह की इस बार बोलती बंद हो गई और गजब यह कि अपनी ही पार्टी की चौखट पर। कभी वे जिस-तिस को पाकिस्तान भेजने की चेतावनी दिया करते थे और अति हिंदूवादी ताकतें उनके बयानों पर ताली पीटती थीं। नवादा फिर भी उनके बयानों पर बदहवास नहीं हुआ। इलाके को उनके केंद्र सरकार में मंत्री होने का कोई विशेष फायदा भी नहीं मिला। अब पार्टी को बड़बोलेपन की दरकार नहीं, लिहाजा गिरिराज की पूछ कुछ कम हो गई। वे नवादा से विदा होना नहीं चाहते थे, जबकि इलाके के मिजाज के कारण पार्टी इस बार सशंकित है। भाजपा ने यह सीट लोजपा के हवाले कर दी है। बदले में गिरिराज को बेगूसराय मिला है। वहां के मैदान में उतरने का उनका मन नहीं हो रहा। वजह, भितरघात की आशंका।

जनता का मिजाज ही अलग : सुरक्षित से सामान्य हुए, 2009 में, इस संसदीय क्षेत्र का अंदाज भी निराला है। न किसी से परहेज और न ही किसी पर आंख मूंदकर यकीन। दोहरी पारी की भरसक मोहलत नहीं। बाहरी भी पसंद आता है, लेकिन अपने घर-आंगन की टेढ़ी चाल नहीं सुहाती। महिलाओं को तनिक कम तवज्जो रही है। कभी कॉमरेड इस इलाके पर नाज करते थे। दो बार विजेता और तीन मर्तबा निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहे, लेकिन अब राजनीति करवट बदल चुकी है। दक्षिणपंथी हवा में बहते हुए इलाके ने लाल चोला उतार दिया। वस्तुत: यह जमीनी हकीकत से समाजवाद के जुदा होने का परिणाम है। जीत के गुमान में पार्टियां जनता के मिजाज का सही आकलन नहीं कर पातीं। बदला जनता चुकाती है, तख्त-ओ-ताज से बेदखल कर। हकीकत में कहिए तो नवादा सबका पानी उतार देता है।

सिर्फ दो बार स्थानीय प्रत्याशी जीते : अब तक की अधिसंख्य जीत बाहरी प्रत्याशियों के खाते में। पिछली बार विजयी रहे गिरिराज सिंह मुंगेर विधानसभा क्षेत्र में बड़हिया के वाशिंदा हैं। स्थानीय विजेताओं की सूची में महज दो नाम हैं। बतौर निर्दलीय महंत सूर्य प्रकाश नारायण पुरी और माकपा से प्रेमचंद राम। हैट्रिक की उपलब्धि एकमात्र कांग्रेस के खाते में दर्ज है, वह भी संसदीय इतिहास के पहले दौर में। इलाका इस कदर नकचढ़ा है कि उम्मीदवारों के लिए दूसरी पारी पर आफत होती है। सिवाय कुंवर राम (कांग्रेस) के कोई दूसरी बार विजयी नहीं हुआ। वैसे 1957 में दोहरी उम्मीदवारी की दौड़ में विजयी रहे रामधारी दास 1962 में भी संसद पहुंचे थे।

फीका पड़ता गया लाल रंग: माकपा का चुनावी अवतरण 1971 में हुआ। वह पांचवें नंबर की पार्टी रही। 1980-84 के चुनावों में सीधी टक्कर दी। निकटतम प्रतिद्वंद्वी थी। बाद के दो चुनावों (1989 और 1991) को उसने जीत लिया, लेकिन 1996 में हार गई। 1998 से उसकी दुर्दशा शुरू हुई। सीधे चौथे नंबर पर आ गई। वोट मात्र 2.5 फीसद। उसके बाद परिदृश्य से गायब हो गई। 1962 और 1967 में भाकपा को तीसरा स्थान मिला। यही उसकी सर्वोत्तम उपलब्धि है।

बनवारी के पेच से मिली शिकस्त: 1998 में राजद की मालती देवी ने भाजपा के कामेश्वर पासवान को महज 14,384 मतों से पराजित किया। निर्दलीय बनवारी राम 38,792 वोट पा गए। शेष आठ उम्मीदवारों ने भी 33,247 वोट काटे। ये वोट अगर सीधे मुकाबले वालों को मिलते तो स्थिति कुछ और होती। इसका जवाब साल भर बाद (1999) हुए चुनाव ने दिया। राजद के विजय कुमार चौधरी से भाजपा के संजय पासवान 84,085 वोटों से जीते। शेष दस उम्मीदवारों को मात्र 26,551 वोट मिले। बनवारी राम 2004 में संजय पासवान के लिए लंगड़ी साबित हुए। राजद जीत गया।

बिखरे वोटों ने बिगाड़ा गणित: 1957 में दोहरी उम्मीदवारी वाले चुनाव में कांग्रेस से सत्यभामा देवी और रामधारी दास मात्र 20.4 और 14.8 फीसद वोट पाकर सांसद बने। उसी चुनाव में सीधे मुकाबले से अलग रहे उम्मीदवार उनसे अधिक वोट पा गए। 1967, 1971, 1980, 1989, 1996 और 1998 में भाग्य का फैसला कराने वाले वोटों से ज्यादा वोट बेकारÓ साबित हुए।

हार-जीत के दिलचस्प तथ्य : लोकदल के नथुनी राम रिकार्ड 84 प्रतिशत वोट पाए। 1977 में उन्होंने कांग्रेसी महावीर चौधरी को 70.9 फीसद मतों के अंतर से हराया। 1998 में भाजपा के कामेश्वर पासवान मात्र 1.7 प्रतिशत वोटों के अंतर से हार गए। 2009 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी भोला सिंह को कुल वोटों का दस प्रतिशत व पोल हुए वोटों का 25 प्रतिशत भी नहीं मिला, फिर भी वे करीब 35 हजार के अंतर से जीत गए। दूसरे स्थान पर रही लोजपा की वीणा देवी करीब 96 हजार वोट पाकर भी जमानत गंवा बैठीं।

पिछला परिदृश्य: 2014 के चुनाव में छह निर्दलीय सहित कुल 17 प्रत्याशी थे, जिनमें एक महिला भी। 13 प्रत्याशी स्थानीय और चार बाहर के। बाहरी प्रत्याशियों में गया, नवादा, लखीसराय से एक-एक। एक पड़ोसी राज्य झारखंड से। निकटतम प्रतिद्वंद्वी राजबल्लभ प्रसाद से 13.84 प्रतिशत अधिक वोट पाकर गिरिराज सिंह विजयी रहे। उन दोनों के अलावा एकमात्र कौशल यादव जमानत बचा पाए थे।

पहला चुनाव: 1952 के चुनाव में इलाके की ख्याति गया (पूर्वी) के नाम से थी। कांग्रेस के ब्रजेश्वर प्रसाद विजेता रहे थे। उसके बाद के चुनाव यानी 1957 में नवादा वजूद में आया। तब दोहरी उम्मीदवारी थी। सत्यभामा देवी को 109255 वोट मिले थे। रामधारी दास को 79324 वोट।

अब तक के सांसद

1957: सत्यभामा देवी (कांग्रेस)

1957: रामधारी दास

1962: रामधारी दास (कांग्रेस)

1967: एमएनपीएन पुरी (निर्दलीय)

1971: सुखदेव प्रसाद वर्मा (कांग्रेस)

1977: नथुनी राम (भालोद)

1980/81: कुंवर राम (कांग्रेस)

1989: प्रेम प्रदीप (माकपा)

1991: प्रेमचंद्र राम (माकपा)

1996: कामेश्वर पासवान (भाजपा)

1998: मालती देवी (राजद)

1999: संजय पासवान (भाजपा)

2004: वीरचंद पासवान (राजद)

2009: भोला सिंह (भाजपा)

2014: गिरिराज सिंह (भाजपा)