Election Symbol: बात लोकसभा चुनाव की हो या फिर विधानसभा चुनाव की, सभी में चुनाव चिह्न की काफी अहम भूमिका होती है। चुनाव चिह्न के आगे बटन दबाकर ही हम किसी भी प्रत्याशी को वोट देते हैं। राष्ट्रीय पार्टियां हों या छोटी पार्टियां या फिर निर्दलीय प्रत्याशी, सभी को एक चुनावी सिंबल दिया जाता है। उम्मीदवारों को चुनाव सिंबल देने के पीछे यह मकसद होता है कि जो वोटर अनपढ़ है। वह मतपत्र पर छपे सिंबल को देखकर वोट दे सकें। उम्मीदवार को दिया जाना वाला यह सिंबल किसी भी ऐसी चीज का हो सकता है, जिसकी लोग आसानी से पहचान कर लें।
ब्रिटैनिका के अनुसार करीब 2,722 साल पहले ग्रीस के स्पार्टा शहर में पहली बार चुनाव हुआ था। हालांकि, उस समय आज की तरह संगठित राजनीतिक दलों की मौजूदगी नहीं थी। 234 साल पहले अमेरिका के अलेक्जेंडर हैमिल्टन के नेतृत्व में पहली संगठित राजनीतिक पार्टी बनी। इसका नाम फेडरलिस्ट पार्टी था। इस पार्टी का निशान गोलाकार छल्ले यानी की साइकिल की रिंग की तरह था। इस छल्ले का रंग काला था। यहीं से दुनियाभर की संगठित पार्टियों के बीच चुनावी सिंबल की प्रक्रिया शुरू हो गई।
भारत में चुनाव चिन्ह दिए जाने की शुरुआत कब हुई
भारत की आजादी से पहले देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल थे। पहली थी कांग्रेस और दूसरी मुस्लिम लीग। कांग्रेस पार्टी की स्थापना के बाद दो बैलों का जोड़ा कांग्रेस पार्टी का सिंबल था। वहीं, 1906 में बनने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का अर्ध चंद्रमा और तारा पार्टी का चुनाव चिन्ह था, लेकिन इंडिया में पार्टी सिंबल या चुनाव चिन्ह के सफर की असली कहानी साल 1951 के बाद स्टार्ट हुई थी। देश के आजाद होने के बाद 28 अक्टूबर 1951 और 21 फरवरी 1952 के बीच देश में पहला आम चुनाव हुआ। इस समय देश में अशिक्षित लोगों की संख्या ज्यादा थी। अनपढ़ लोगों की चुनाव में भागीदारी बढ़ाने के लिए सिंबल का इस्तेमाल किया गया था। इस समय 14 पार्टियां मैदान में थी।
चुनाव चिन्ह कितने तरह का होता है
इलेक्शन कमीशन के मुताबिक, किसी भी पार्टी को दिया जाना वाला चुनाव चिन्ह दो तरीके का होता है। पहला होता है रिजर्वड चुनाव चिन्ह और दूसरा मुक्त चुनाव चिन्ह होता है। रिजर्व चुनाव चिन्ह की बात की जाए तो यह सिर्फ एक दल का ही होता है। जैसे- बीजेपी का कमल का फूल और कांग्रेस पार्टी का हाथ। वहीं मुक्त चुनाव चिन्ह किसी दल का नहीं होता है। ये किसी नई पार्टी या उम्मीदवार को किसी निश्चित निर्वाचन क्षेत्र के लिए दिया जाता है।
चुनाव आयोग देता है सिंबल
भारत में चुनाव कराने से लेकर पार्टियों को मान्यता और उन्हें चुनावी सिंबल देने का काम इलेक्शन कमीशन ही करता है। चुनाव आयोग को संविधान के आर्टिकल 324, रेप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स 1961 के माध्यम से यह पावर मिलती है। इलेक्शन कमीनशन The Election Symbols (Reservation and Allotment) Order, 1968 के मुताबिक क्षेत्रीय और राजनीतिक पार्टियों को चुनावी सिंबल आवंटित करने की पावर मिलती है।
इस तरह दिए जाते हैं चुनावी सिंबल
इलेक्शन कमीशन के पास कई तरह के चुनावी चिन्ह की भरमार होती है। वह चुनाव चिह्नों के लिए दो लिस्ट तैयार करके रखता है। पहली लिस्ट में वे चिन्ह होते है, जिनका आवंटन पिछले कुछ सालों में होता है। वहीं, दूसरी लिस्ट में ऐसे सिंबल होते हैं जिनको किसी दूसरे को नहीं दिया गया होता है। चुनाव आयोग अपने पास रिजर्व में कम से कम ऐसे 100 सिंबल हमेशा रखता है, जो अब तक किसी को नहीं दिए गए हैं। हालांकि, कोई पार्टी अगर अपना चुनावी सिंबल खुद चुनाव आयोग को बताता है और वह सिंबल किसी के पास पहले से नहीं है तो कमीशन उस पार्टी को उसे दे देता है।
चुनाव आयोग सिंबल देने के बाद उसे छीन सकता है
नए राजनीतिक दल जिसे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टी का दर्जा नहीं मिला है, उसे सिंबल देने के बाद आयोग फ्रीज भी कर सकता है। 2012 में उत्तर प्रदेश की नैतिक पार्टी को चुनाव आयोग ने झाड़ू चुनावी सिंबल दिया था। इस समय आम आदमी पार्टी को स्टेट और नेशनल पार्टी का दर्जा नहीं मिला था। 2012 के विधानसभा चुनाव में नैतिक पार्टी ने 9 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे सभी सीटों पर हार का सामना करना पड़ा था। 2014 में भी नैतिक पार्टी इसी चुनावी सिंबल पर चुनाव लड़ना चाहती थी, लेकिन चुनाव आयोग ने उससे यह चुनावी चिन्ह छीन लिया। आम आदमी पार्टी ने साल 2013 के विधानसभा चुनाव में 28 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसी वजह से इलेक्शन कमीनशन ने झाड़ू सिंबल आम आदमी पार्टी को देने का फैसला किया था।