रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने सपा से नाता तोड़ने और भाजपा गठबंधन में शामिल होने की मुख्य वजह अपने दादा चौधरी चरण सिंह को केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा भारत रत्न से सम्मानित करना बताई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि चौधरी चरण सिंह किसानों के एक बड़े नेता थे और वे राजनीति में ईमानदारी के लिए भी खास पहचान रखते हैं। मगर बहुत कम लोगों को यह जानकारी होगी कि चौधरी चरण सिंह अपने जीवन का पहला लोकसभा चुनाव ही बुरी तरह हार गए थे। इस हार का मुंह उन्हें मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट पर देखना पड़ा था। चौधरी चरण सिंह मुजफ्फरनगर में 1971 में पराजित हो जाने के बाद बागपत संसदीय क्षेत्र से 1977, 1980 और 1984 के तीनों लोकसभा चुनाव अच्छे अंतर से जीते। अपना राजनीतिक करिअर उन्होंने विधानसभा से शुरू किया था। सूबे की छपरौली विधानसभा सीट से वे 1937 में पहली बार विधायक चुने गए थे।

वे छपरौली कभी नहीं जाते थे, लेकिन 1974 तक वहां से जीतते रहे

उसके बाद 1974 तक जितने भी चुनाव हुए, उन्होंने छपरौली से सरोकार नहीं तोड़ा और छपरौली ने भी उन्हें हमेशा सिर आंखों पर बिठाया और एकतरफा जिताकर भेजा। इलाके के लोगों का उनके प्रति सम्मान और लगाव इतना अधिक था कि वे नामांकन दाखिल करने के अलावा अपने क्षेत्र में चुनाव प्रचार के लिए कभी नहीं आते थे। चौधरी चरण सिंह शुरू में कांग्रेस में थे। लेकिन 1967 में उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग पार्टी भारतीय क्रांति दल का गठन किया और विपक्ष की मदद से संयुक्त विधायक दल सरकार के मुख्यमंत्री बने।

मुजफ्फरनगर में अपने दल भारतीय क्रांति दल से चुनाव लड़े और हार गये

वे 1970 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने पर पहली बार महज 328 दिन और दूसरी बार 225 दिन ही इस कुर्सी पर बैठ पाए। जहां तक मुजफ्फरनगर के लोकसभा चुनाव में हार का सवाल है, यह चुनाव उन्होंने अपनी पार्टी भारतीय क्रांति दल के उम्मीदवार की हैसियत से लड़ा था। कांग्रेस ने इस चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से तालमेल किया था और मुजफ्फरनगर सीट इस पार्टी के लिए छोड़ी थी। भाकपा की तरफ से राजपूत बिरादरी के कामरेड विजय पाल सिंह से चरण सिंह का मुकाबला हुआ। तब इस लोकसभा में कुल 538144 मतदाता थे।

कुल 382202 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इनमें से 6742 मत रद्द कर दिए गए। कुल वैध मतों 375460 में से विजय पाल सिंह को 203193 और चरण सिंह को 152914 वोट मिले। इस तरह चरण सिंह अपने जीवन का पहला ही लोकसभा चुनाव 50279 वोट से हार गए। इस हार का उनके समर्थक किसानों को गहरा सदमा लगा। खासकर जाटों ने तो कई जगह यह खबर सुनते ही अपने ट्रांजिस्टर भी गुस्से में तोड़ दिए। अनेक लोगों के घरों में चूल्हा नहीं जला।

बहरहाल, मुजफ्फरनगर भले रास न आया हो पर बागपत लोकसभा क्षेत्र ने उन्हें कभी हारने नहीं दिया। आपातकाल के बाद 1977 के चुनाव में तो खैर कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी 85 सीटों पर हार गई थी। चरण सिंह काफी बड़े अंतर से जीते और मोरारजी देसाई की सरकार में गृहमंत्री रहे। वे बाद में उपप्रधानमंत्री भी बने और फिर जनता पार्टी को तोड़कर कांग्रेस की मदद से 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बन गए। यह बात अलग है कि वे इस पद पर महज 170 दिन ही रह पाए।

वे अभी तक के इकलौते ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में कभी भी संसद का सामना नहीं किया। जिस दिन संसद सत्र शुरू होने वाला था, इंदिरा गांधी ने समर्थन वापस लेकर उसी दिन उनकी सरकार गिरा दी और फिर 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए। 1980 के मध्यावधि चुनाव के वक्त चौधरी चरण सिंह कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे। इस चुनाव में उन्होंने बागपत के साथ हरियाणा की सोनीपत सीट से भी नामांकन दाखिल किया था। लेकिन नामांकन फार्म में किसी चूक के कारण सोनीपत से उनका नामांकन रद्द हो गया था।

नतीजतन वे बागपत से ही लड़े और जीतकर लोकसभा पहुंचे। बागपत के मतदाताओं ने 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में देश भर में चली सहानुभूति की लहर में भी चरण सिंह को हारने नहीं दिया। उत्तर प्रदेश में बागपत में चरण सिंह खुद और एटा में उनके उम्मीदवार प्यारे मियां की जीत हुई। बाकी सभी 83 सीटें राजीव गांधी की झोली में गई। इस चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे धुरंधर नेता भी हार गए थे। लेकिन चरण सिंह तीसरी बार पांच साल का अपना संसदीय कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और 29 मई 1987 को उनका निधन हो गया।