हरियाणा में लोकसभा चुनाव से पहले एक बड़ा सियासी खेला हुआ। ऐसा खेल जिसमें मनोहर लाल खट्टर से उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन गई। कौन सोच सकता था कि पीएम नरेंद्र मोदी की भूरी-भूरी तारीफ मिलने के 24 घंटे बाद ही मुख्यमंत्री पद से ही खट्टर को वंचित कर दिया जाएगा। लेकिन जो नहीं सोचा था, बीजेपी हाईकमान ने वो कर दिखाया, खट्टर को आउट किया और नायब सैनी को मुख्यमंत्री बना दिया गया।
सिर्फ दो सीटों का खेल या बड़ी डील?
अब मीडिया के सामने बीजेपी-जेजेपी के गठबंधन टूटने की बड़ी वजह दो सीटें हैं। माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला की पार्टी दो सीटें पर अड़ी हुई थी, चाहती थी कि बीजेपी उन सीटों पर किसी को ना उतारे। लेकिन अमित शाह से मुलाकात हुई, जेपी नड्डा के साथ मंथन हुआ, पर फिर भी निष्कर्ष नहीं निकल पाया और अब चुनाव से ठीक पहले जेजेपी गठबंधन से बाहर हो गई। अब सवाल ये उठता है कि क्या जयंत का अलग होना सिर्फ दो सीटों से जुड़ा एक छोटा सा मतभेद है?
एक घटना और दो नजरिए डीकोड
जैसी इस देश की राजनीति है, यहां पर सियासत समझने के कई तरीके होते हैं। अगर अदावत वाले एंगल से इस पूरे घटनाक्रम को समझें तो बिल्कुल कहा जाएगा कि नाराजगी की वजह से ही दुष्यंत के रास्ते बीजेपी से अलग हो गए। लेकिन अगर नफा-नुकसान के एंगल से देखें तो पता चलता है कि जेजेपी के अलग होने से भी बीजेपी को ही फायदा हो रहा है। इसके साथ-साथ दुष्यंत चौटाला को भी इस समय अलग होने से लाभ होता दिख रहा है। अब ये निष्कर्ष निकालने के लिए कोई राजनीतिक पंडित बनने की जरूरत नहीं है, बल्कि अगर हरियाणा का अंक गणित और जातीय समीकरण समझा जाए तो आप भी कह सकते हैं कि दुष्यंत चौटाला ने एक फ्रेंडली एग्जिट लिया है जहां पर दोनों जेजेपी और बीजेपी को फायदा होने वाला है।
बीजेपी का एक्सपेरिमेंट और जाट वोट बंटा
हरियाणा में जाटों की राजनीति कई साल पुरानी है। कहने को इसकी आबादी राज्य में सिर्फ 22 फीसदी है, लेकिन 2014 से पहले तक सीएम कुर्सी पर इस समुदाय का व्यक्ति ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा था। भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने तो दस साल तक हरियाणा में कांग्रेस की सरकार चलाई है। लेकिन बीजेपी ने हरियाणा में एक बड़ा एक्सपेरिमेंट किया, उसने गैर जाट राजनीति को राज्य में हवा देने का काम किया। नतीजा ये रहा कि जाट वोट एक तरफ और गैर जाट वोट दूसरी तरफ। उसी रणनीति को धार देने के लिए बीजेपी ने पंजाबी समुदाय से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया था।
तीन हिस्सों में बंटेगा जाट वोट
अब फिर जब सत्ता में बड़ा परिवर्तन किया गया है तो पार्टी ओबीसी समुदाय से आने वाले नायब सैनी को सीएम कमान सौंप दी है। ये बताने के लिए काफी है कि बीजेपी तो अपनी गैर जाट वाली राजनीति पर ही आगे बढ़ने वाली है। लेकिन इसके सफल होने के लिए जाटों का बंटना भी उतना ही जरूरी है। अगर जाटों का वोट एकमुश्त तरीके से कांग्रेस को पड़ेगा तो सत्ता में परिवर्तन होने की संभावना बढ़ जाएगी, बीजेपी का किला ढह जाएगा। ऐसे में बीजेपी अगर एक तरफ गैर जाट वाली राजनीति पर फोकस कर रही है, दूसरी तरफ वो जाटों के वोट को बांटने की सियासत भी खेल रही है। अब जाट वोट बांटने के लिए दुष्यंत चौटाला वाला कार्ड खेला गया है। उनके अलग होने से जाट का वोट फिर तीन पार्टियों में बंट जाएगा- INLD, कांग्रेस और जेजेपी।
अब यही वो समीकरण है जो कहता है कि सोची समझी रणनीति के तहत जेजेपी, बीजेपी से अलग हुई है। कांग्रेस को तो उम्मीद थी कि इस बार जाट वोट एकमुश्त तरीके से उसे पड़ेगा। इसका कारण ये था कि किसान आंदोलन ने हरियाणा के जाटों को भी नाराज कर रखा है। ऐसे में अगर जेजेपी, बीजेपी के साथ ही रहती तो उस गुस्से का नुकसान उसे भी होता और जाटों का एकमुश्त वोट कांग्रेस को चला जाता। लेकिन अब जब जेजेपी ने अपना रास्ता ही अलग कर लिया है तो वो आसानी से खुद को जाटों के विकल्प के तौर पर पेश कर सकती है। वहीं बीजेपी आराम से फिर अपनी गैर-जाट वाली राजनीति पर फोकस कर हरियाणा की राजनीति में खुद को विरोधियों के सामने मजबूत रखने का काम करेगी।
जेजेपी से किसे होगा सबसे ज्यादा नुकसान?
इस सियासी फायदे का विश्लेषण इस बात से भी किया जा सकता है कि जेजेपी की वजह से सीधा नुकसान INLD और कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में भी हुआ है। ये नहीं भूलना चाहिए कि तब कुछ महीनों पहले बनी जेजेपी ही किंगमेकर की भूमिका में आई थी। उसकी वजह से जाट वोटों का बंटवारा हुआ था और सीधा नुकसान जाट राजनीति करने वाली INLD को हुआ। उसका वोट शेयर मात्र 2.4% पर सिमट गया और सीट रह गई सिर्फ 1। वहीं दूसरी तरफ जेजेपी का प्रदर्शन ऐसा रहा कि उसने 10 सीटें तो जीती हीं, वही अन्य 10 सीटों पर वो दूसरे नंबर की पार्टी रही। ज्यादातर सीटों पर उसने INLD का वोट काटने का ही काम किया। अब फिर जब गठबंधन नहीं है और जेजेपी अकेले मैदान में उतरेगी, फिर वही वोटिंग पैटर्न देखने को मिल सकता है।
दिलचस्प बात तो ये भी है कि दुष्यंत चौटाला की तरफ से कोई बयानबाजी नहीं हुई है। अगर इस तरह से गठबंधन टूटता है तो आरोप-प्रत्यारोप का दौर लाजिमी रहता है। लेकिन जितना सूखा या कहना चाहिए नरम रुख दुष्यंत का दिखा है, उसने भी इन अटकलों को हवा देदी है कि बीजेपी-जेजेपी का ये एक फ्रेंडली एग्जिट है जहां पर फिर साथ आने की गुंजाइश भी कायम है।