देश में जिन पांच राज्यों में से अगले महीने से विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें एक राज्य ऐसा भी है जहां होने वाले चुनाव की चर्चा न तो घर यानी राज्य में हो रही है और न ही बाहर। वह है पूर्वोत्तर का उग्रवादग्रस्त राज्य मणिपुर। यहां 60 सीटों के लिए मार्च में दो चरणों में वोट पड़ेंगे लेकिन नगा संगठनों की अपील पर बीते 80 दिन से जारी आर्थिक नाकेबंदी की वजह से यहां राजनीतिक दलों और मतदाताओं की प्राथमिकता सूची में चुनाव काफी नीचे हैं। इस नाकेबंदी की अपील राज्य में सात नए जिलों के गठन के विरोध में की गई थी। उसके बाद इस मुद्दे पर काफी हिंसा हो चुकी है। यही वजह है कि राज्य में अब तक न तो चुनाव अभियान शुरू हुआ है और न ही किसी पार्टी ने अपने उम्मीदवारों की कोई सूची जारी की है।वैसे, भी पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़ कर बाकी किसी राज्य में होने वाले चुनावों को मीडिया में खास तवज्जो नहीं मिलती। इसकी प्रमुख वजह है कि उन राज्यों की राजनीति का राष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति पर कोई असर नहीं होता। इस बार भी ऐसा ही हो रहा है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब जैसे राज्यों की चुनावी खबरों के बीच मणिपुर चुनाव की खबरें दब गई हैं। शायद ही किसी अखबार या टीवी चैनल में यहां की चुनावी खबरें दिखाई गई हों।

चुनाव तो दूर अब तक उस आर्थिक नाकेबंदी की भी ज्यादा खबरें सामने नहीं आई हैं जिसने राज्य के लोगों का जीना मुहाल कर रखा है। इसकी वजह से जरूरी वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और नोटबंदी के कारण नकदी की भारी किल्लत राज्य में चुनावी माहौल पर भारी पड़ रही है। असम में चुनाव जीत कर और अरुणाचल प्रदेश में पूरी सरकार के पाला बदलने की वजह से भाजपा इलाके के इन दोनों राज्यों में सत्ता पर काबिज है। पूर्वोत्तर में पांव पसारने की रणनीति के तहत अब उसकी निगाहें मणिपुर पर हैं। इसी अकेली वजह ने 60 विधानसभा सीटों वाले इस चुनाव को अबकी काफी अहम बना दिया है। भाजपा और शर्मिला के मजबूती से उभरने के बावजूद कांग्रेस को उम्मीद है कि नए जिलों के गठन को लेकर नगा संगठनों के विरोध की वजह से राज्य के लोग इस बार भी पार्टी को ही सत्ता सौंपेंगे।

यहां पर्वतीय इलाकों और घाटी के बीच राजनीतिक खाई काफी चौड़ी है। राज्य के दो-तिहाई हिस्से में फैले होने के बावजूद पर्वतीय क्षेत्र में विधानसभा की महज 20 सीटें हैं। बाकी 40 सीटें मणिपुर घाटी में हैं और यहीं सीटें राज्य में सरकार का स्वरूप तय करती हैं। घाटी में मैतेयी वोटर बहुमत में हैं और पर्वतीय इलाकों में नगा तबके की बहुलता है। इस विभाजन ने सत्ता के दावेदार भाजपा के समक्ष भी मुश्किलें पैदा कर दी हैं। अगर वह अपने साझीदार नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) या युनाइटेड नगा कौंसिल के साथ कोई तालमेल करता है तो मैतेयी वोटरों के उससे दूर जाने का खतरा है। नए जिलों के गठन के मुद्दे पर नगा व मैतेयी तबके के मतभेद चरम पर हैं। शायद यही वजह है कि भाजपा ने यहां अकेले अपने बूते मैदान में उतरने का एलान किया है।

जहां तक मुद्दों की बात है राज्य में बीते चार दशकों से हर चुनाव में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म करना ही सबसे बड़ा मुद्दा रहा है। इसके अलावा अबकी नए जिलों का गठन, इनर लाइन परमिट और दो महीने से लंबे समय से चल रही आर्थिक नाकेबंदी भी एक प्रमुख मुद्दा होगी। बीते पांच-छह वर्षों से मणिपुर आर्थिक नाकेबंदी का पर्याय बन चुका है। यह मुद्दा यहां बेहद संवेदनशील है। किसी भी पार्टी के लिए राज्य के नगा व मैतेयी वोटरों को एक साथ साधना टेढ़ी खीर है। शायद यही वजह है कि भाजपा भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रही है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगर आर्थिक नाकेबंदी शीघ्र खत्म नहीं हुई तो राज्य के नगाबहुल इलाकों की 20 सीटों पर चुनाव कराना चुनाव आयोग और प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।