देश में लोकसभा चुनाव अपने अंतिम पड़ाव पर आ चुका है। सातवें चरण की वोटिंग कल यानी कि एक जून को होने जा रही है। इस बार का यह लोकतंत्र का पर्व थोड़ा फीक साबित हुआ है। प्रचार में तो कोई कमी नहीं आई है, लेकिन वोटरों के उत्साह में जरूर नीरसता दिखाई दी है। इसका कारण ये है कि हर चरण में इस बार वोटिंग कुछ कम हुई है, चुनाव आयोग जितनी भागीदारी की उम्मीद लगाए बैठा था, वैसा माहौल जमीन पर बनता नहीं दिखा। इस बार पहले चरण में 66.14% वोटिंग हुई है, दूसरे चरण में 66.71%, तीसरे चरण में 65.68%, चौथे चरण में 67.71%, पांचवें चरण में 62.2% और छठे चरण में 61.76% वोटिंग।

अब इन आंकड़ों में कोई नई बात नहीं है, यह हर कोई जानता है कि पिछले चुनाव की तुलना में ज्यादातर चरणों में कुछ कम वोट पड़े हैं। लेकिन एक दिलचस्प पहलू यह है कि अब इस देश का दिव्यांग समाज काफी जागरूक हो चुका है। कहने को सबसे ज्यादा चुनौतियों का सामना वो करता है, उसे कई तरह की दिक्कतों से जूझना पड़ता है, लेकिन बात जब वोटिंग करने की आती है, उसका उत्साह देखते ही बनता है। इस वर्ग ने अपनी तमाम दिक्कतों को नजरअंदाज कर इस लोकतंत्र के पर्व को सही मायनों में सशक्त करने का काम किया है।

असल में Young Leaders for Active Citizenship (YLAC) और Nipman Foundation ने एक रिसर्च की है, उसमें बतया गया है कि इस बार दिव्यांग वोटरों ने काफी बढ़ चढ़कर वोटिंग की है। उनकी तरफ से काफी सक्रिय रूप से इस लोकतंत्र के पर्व में भूमिका निभाई गई है। उनका आंकड़ा कहता है कि 88.4 लाख मतदाता इस बार दिव्यांग थे। ये आंकड़ा ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए बन जाता है क्योंकि यह सिंगापुर की कुल आबादी से 1.45 गुना ज्यादा है। एक आंकड़ा ये भी है कि हर 10 दिव्यांग वोटर में से 4 दिव्यांग तो महिला थीं, यानी कि आधी आबादी यहां भी बाजी मारती दिख रही है।

अब चुनाव आयोग ने अपने स्तर पर ऐसे वोटरों के लिए कुछ सुविधाएं जरूर दी हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो घर से मतदान करने का अधिकार है। लेकिन फिर भी उनकी असल स्थिति को नहीं समझा जा सकता क्योंकि चुनाव आयोग ही अलग से उनका कोई डेटा जारी नहीं करता है। हैरानी की बात ये है कि इस देश में अभी भी दिव्यांग वोटरों का कोई खास प्रतिनिधित्व नहीं दिख रहा है। कोई भी पार्टी इस दिव्यांग समाज के लिए अलग मेनिफेस्टो तक जारी नहीं करती है, महिलाओं पर ध्यान रहता है, युवाओं को फोकस में रखा जाता है, किसानों को ध्यान में रखकर ऐलान किए जाते हैं, लेकिन इन दिव्यांग लोगों को हर पार्टी भूल जाती है।

अगर आगामी चुनाव की ही बात करें तो सिर्फ पैरालंपिक वर्ल्ड चैपियन देवेंद्र झझरिया राजस्थान के चुरू से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन उनके अलावा कोई दूसरा दिव्यांग चुनावी मैदान में खड़ा नहीं दिख रहा है। इस समय सिर्फ सीपीआईएम एक ऐसी पार्टी है जो कम से कम अपने घोषणा पत्र को साइन लैंग्वेज में भी जारी करती है, उस वजह से दिव्यांग समाज तक उनके वादे पहुंच पाते हैं। लेकिन दूसरे दलों ने अभी तक इस तरह की कोई जहमत नहीं की है। मांग ये उठ रही है कि दिव्यांग समाज को भी सियासी परिपेक्ष में पूरी महत्वता दी जानी चाहिए, उनकी जरूरतों को ध्यान में रखकर भी कुछ ऐलान किए जाने चाहिए।

अभी के लिए जो कदम उठाए गए हैं, उन्हें सिर्फ एक शुरुआत माना जा रहा है, असल उदेश्यों तक पहुंचने के लिए कई और बड़े कदमों की जरूरत है। इस बारे में YLAC के को फाउंडर रोहित कुमार कहते हैं कि दिव्यांग लोगों का अभी ना राजनीतिक प्रतिनिधित्व और ना ही वोटर टर्नआउट को लेकर पर्याप्ट डेटा मौजूद नहीं है। एक नागरिक के तौर पर जरूर चुनाव आयोग के कुछ फैसलों का स्वागत किया जाएगा, लेकिन इस समाज की असल समस्याओं को समझने के लिए और ज्यादा डेटा की जरूरत पड़ने वाली है।

इस बात पर सहमति जताते हुए निपम फाउंडेशन के फाउंडर निपुन मल्होत्रा कहते हैं कि सही दिशा में कदम जरूर उठाए गए हैं, लेकिन यह सिर्फ एक शुरुआत है। उनके मुताबिक 2011 की मतगणना को आधार माना जाए तो अभी भी दिव्यांग समाज का एक बड़ा वर्ग देश का वोटर नहीं बन पाया है, उसे अभी तक रेजिस्टर नहीं किया गया है, ऐसे में इस डिपार्टमेंट में काफी सुधार की गुंजाइश है।