सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि सरकारी संस्थान अब लंबे समय तक एड-हॉक या अस्थायी कर्मचारियों से नियमित और स्थायी प्रकृति का काम नहीं ले सकते। अदालत ने साफ किया कि सरकारें वित्तीय संकट या पदों की कमी का हवाला देकर कर्मचारियों को स्थायी करने से इनकार नहीं कर सकतीं। जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने अपने फैसले में कहा – “आउटसोर्सिंग को शोषण का साधन नहीं बनाया जा सकता। जहां काम स्थायी रूप से हर दिन और हर साल होता है, वहां संस्थान को अपनी स्वीकृत संरचना और भर्ती व्यवस्था में इसका स्पष्ट प्रतिबिंब दिखाना होगा।”

संवैधानिक नियोक्ता है राज्य

न्यायमूर्ति नाथ ने टिप्पणी की कि राज्य (केंद्र और राज्य सरकारें) सिर्फ बाजार के भागीदार नहीं, बल्कि संवैधानिक नियोक्ता हैं। वे अपने बजट का संतुलन उन कर्मचारियों की मेहनत पर नहीं बना सकते, जो लगातार सार्वजनिक सेवाएं दे रहे हैं।

यूपी उच्च शिक्षा आयोग का मामला

यह फैसला उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग के दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों की याचिका पर आया है। आयोग ने वित्तीय तंगी और रिक्तियों की कमी का हवाला देकर नियमितीकरण से इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आयोग का यह तर्क खारिज कर दिया और कहा कि लंबे समय तक अस्थायी लेबल पर नियमित श्रम लेना प्रशासनिक पारदर्शिता को चोट पहुंचाता है और समान संरक्षण के संवैधानिक वादे का उल्लंघन करता है।

सरकारों को दिए निर्देश

अदालत ने कहा कि सरकारी विभागों को सटीक रिकॉर्ड रखना होगा—जैसे स्थापना रजिस्टर, मास्टर रोल और आउटसोर्सिंग से जुड़े सभी दस्तावेज। उन्हें यह भी बताना होगा कि जब काम स्थायी प्रकृति का है, तो उन्होंने स्वीकृत पदों पर नियुक्ति के बजाय अस्थायी व्यवस्था क्यों चुनी।

संवैधानिक अनुशासन और मानव संवेदना

पीठ ने स्पष्ट किया – “संवेदनशीलता कोई भावुकता नहीं, बल्कि यह संवैधानिक अनुशासन है, जो हर उस निर्णय का हिस्सा होना चाहिए जो सार्वजनिक सेवाओं को चलाने वाले कर्मचारियों को प्रभावित करता है।”

क्या रहा नतीजा ?

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल एड हॉक शिक्षकों बल्कि लाखों अस्थायी कर्मचारियों के लिए बड़ी राहत माना जा रहा है। अदालत ने सरकारों को चेतावनी दी है कि स्थायी कार्यों के लिए अस्थायी कर्मचारियों का इस्तेमाल करना अब संवैधानिक जिम्मेदारी से बचने का साधन नहीं हो सकता।