चंद्रभूषण सिंह
इलाके में सब कुछ ठीक-ठाक ही चल रहा होता है। लेकिन नशे में चूर अलग-अलग समुदायों के दो लोगों के बीच किसी बात पर झगड़ा होता है और अचानक परिस्थिति बदल जाती है। आम दिनों में शायद यह कोई सामान्य बात होती। लेकिन विडंबना यह है कि चुनावों को ध्यान में रख कर कुछ खास क्षेत्रों में गंदी राजनीति करने वालों के लिए इस तरह के विवाद सुनहरे मौके होते हैं मामूली झगड़ों को सांप्रदायिक रंग देकर दंगे को हवा देने के! अलग-अलग धर्मों के तथाकथित ठेकेदार शायद ऐसे मौकों का बेसब्री से इंतजार करते हैं या कभी-कभी ऐसी घटनाओं को प्रायोजित भी करते रहे हैं। दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में दंगे की जांच होनी अभी बाकी है। हो सकता है कि कुछ दिन बाद इसमें शामिल लोगों का परदाफाश हो जाए, दोषियों को कठघरे में खड़ा कर दिया जाए। लेकिन उसके बाद फिर क्या? इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा कि वहां फिर दंगे नहीं होंगे? फिर कोई मासूम बच्चा अपने पिता को, एक औरत अपने पति को या एक मां अपने औलाद को धर्म के ठेकेदारों द्वारा प्रायोजित दंगों में नहीं खोएगी। आने वाले दिनों में वहां कोई मामूली विवाद सांप्रदायिक रंग नहीं लेगा, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? पुलिस-प्रशासन, सरकार या फिर हमारे बहु-सांस्कृतिक समाज के अगुआ? आगे सद्भाव का माहौल बना रहे, आखिर किसी को तो इसकी जिम्मेदारी उठानी ही होगी। नहीं तो शोएब और संदीप की लड़ाई मुसलिम-हिंदू की लड़ाई बनती रहेगी और भारत का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ता रहेगा।
इतिहास में अंगरेजी शासन से पहले हिंदू-मुसलिम दंगों के प्रमाण शायद खोजने पर भी न मिलें। अगर किसी विदेशी शासक ने आक्रमण किया या किन्हीं हालात में मंदिर तोड़े तो हिंदुओं ने आमतौर पर यह नहीं कहा कि मंदिर को मुसलमानों ने तोड़ा। बल्कि ऐसा कहा कि मंदिर किसी अफगानी या ईरानी या तुर्की हमलावर ने तोड़ा। इसी तरह, अगर कभी किसी राजपूत शासक ने मस्जिद तोड़े होंगे तो मुसलमानों ने उन्हें राजा या ज्यादा से ज्यादा राजपूत कहा, न कि हिंदू। मतलब साफ है कि भारतीय संस्कृति में यह समझ थी कि एक आदमी पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता। इसलिए उसका पूरा समाज दोषी नहीं है। लेकिन अंगरेजों ने भारत में राज करने के लिए कट्टरवाद को बढ़ावा दिया जो बाद में सांप्रदायिकता में बदल गया और आज यह हमारे समाज का एक विद्रूप चेहरा है। यह बेवजह नहीं है कि कई इतिहासकारों ने हिंदुस्तान के बंटवारे को धार्मिक कट्टरता से भी जोड़ा है।
सच यह है कि आज भी सांप्रदायिकता का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन किसी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता की कुंजी का काम करता है तो किसी के लिए यह अपने शासन की कमजोरियों को छिपाने का औजार बनता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह महात्मा गांधी के ‘स्वच्छ भारत’ के सपने को स्वच्छता अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह उनसे यह भी आशा होगी कि वे देशवासियों के बीच यह प्रचारित-प्रसारित करें कि धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर गांधीजी के क्या विचार थे। शासन और सत्ता चाहे किसी भी राजनीतिक दल के हाथ में हो, शायद गांधी की प्रासंगिकता ही भारतीय सामाजिक ताने-बाने को मजबूत बनाने में एक जीवनदायिनी घुट्टी का काम कर कर सकती है।
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