विष्णु नागर

गुजरात के वडोदरा से खबर है कि वहां की महानगर पालिका नब्बे गुणा साठ फुट, यानी पांच सौ चालीस फुट का एक तिरंगा लगाने जा रही है। इसे देश का अब तक का सबसे बड़ा तिरंगा बताया जा रहा है। इसे फेडरेशन आॅफ गुजरात इंडस्ट्रीज अंजाम देगी और उसका रखरखाव भी वही करेगी। नाम वडोदरा महानगर पालिका का होगा, जो इसके लिए जगह देगी। उधर देश के हालिया ‘प्रेरणा-पुरुष’ नरेंद्र मोदी की कृपा से गुजरात में सरदार सरोवर बांध के पास भरूच में सरदार पटेल की स्मृति में एक सौ बयासी मीटर ऊंचा स्मारक बनाने का शिलान्यास दुबारा भी हो चुका है। बताते हैं कि यह अमेरिका के ‘स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी’ से भी ऊंचा होगा। यों, यह मोदीजी का मौलिक विचार नहीं है, क्योंकि 1990 में ही बाबा साहेब आंबेडकर की जन्म शताब्दी के अवसर पर मुंबई में डॉ आंबेडकर की स्मृति में ‘स्टेच्यू आॅफ इक्वेलिटी’ (समानता का स्मारक) बनाने की मांग की गई थी। इसके लिए बाबा साहेब के पोते आनंदराज द्वारा छेड़े गए आंदोलन के बाद बारह अगस्त 2012 को इसे बनाने की मंजूरी केंद्र सरकार ने दी थी और इसके लिए इंदु मिल की जमीन देने की घोषणा कर दी थी। मगर फिर कुछ न हुआ। यह स्मारक भी स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से सोलह मीटर ऊंचा, यानी कुल एक सौ नौ मीटर का बनना था। बीच में मुंबई में शिवाजी का स्मारक बनने की बात भी थी, मगर कांग्रेस इन दोनों में से कोई मैदान जीत नहीं पाई।

खैर, अच्छी बात है कि लोग देश का सबसे बड़ा तिरंगा देखने गुजरात जाएंगे और बाद में विश्व का सबसे बड़ा स्मारक देखने भी। जो हो, सवाल यह है कि आखिर हम क्यों कहीं भी भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय झंडा फहराना चाहते हैं? सामान्य आकार के झंडे से क्या दिक्कत है? क्या बड़ा झंडा वडोदरावासियों के राष्ट्रप्रेम को देश में सबसे ऊंचा कर देगा, जिससे बाकी गुजरातियों या अन्य भारतीयों का राष्ट्रप्रेम का सेंसेक्स नीचे आ जाएगा? क्या राष्ट्रप्रेम की मापजोख अब झंडे की लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई से हुआ करेगी? सिवा इसके कि लोग यह अजूबा देखने वहां जाने लगेंगे, और क्या होगा?

सरदार पटेल, आंबेडकर या शिवाजी की याद में ऐसे विशाल स्मारक अगर नहीं बनते हैं तो क्या हो जाएगा? क्या इनका महत्त्व इससे घट जाएगा? अमेरिका के स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी से हम प्रतियोगिता क्यों करना चाहते हैं? क्या हम यह साबित करना चाहते हैं कि हम अमेरिका से आगे बढ़ गए हैं- उनके सबसे ऊंचे स्मारक से भी ऊंचा स्मारक बना कर? पचासों मामलों में हमारी अब तक की सरकारें अमेरिका के आगे नतमस्तक होती रही हैं तो स्मारक ऊंचा बना देने से क्या हमारा सिर ऊंचा उठ जाएगा? जो मोदीजी अपना विरोध करने वाले किसी को भी माफ नहीं करने के लिए मशहूर हैं, उन्होंने भी आखिर अपने को वीसा देने से इनकार करने वाले अमेरिका को झट से माफ कर ही दिया न! तब हम उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में फ्रांस द्वारा भेंट किए गए अमेरिका की आजादी और फ्रांस की उस समय मुक्ति और स्वतंत्रता के प्रति निष्ठा की भावना के इस प्रतीक को अपने तर्इं छोटा बना कर क्या सिद्ध करना चाहते हैं? क्या फिर अमेरिका भी हमसे बड़ा स्मारक बनाने की कोशिश करेगा? कतई नहीं। किसी भी परिपक्व और आत्मविश्वास से भरे लोकतंत्र को इस तरह की होड़ में अपना समय, शक्ति और पैसा बर्बाद करने की जरूरत नहीं।
ठीक है कि भाजपा को इसके जरिए नेहरूजी को नीचा दिखाना है, गांधीजी को भी सरदार पटेल के बगैर अधूरा दिखाना है तो यह भी कर ले। इनके पास न तो अपने कोई गांधी हैं, न नेहरू हैं और न सरदार पटेल या आंबेडकर हैं और न कभी हो सकते हैं। सत्ता में बने रहने के लिए दूसरी विचारधाराओं और दलों से जुड़े महापुरुषों को छोटा दिखाने या उन्हें हड़पने के अलावा ये करते भी क्या रहे हैं! मगर भारत के इतिहास का पूरा फैसला भाजपा-संघ परिवार मिल कर कर लेगा, यह भी एक भ्रम है।

अमेरिका की बराबरी करने की यह दिखाऊ मानसिकता एक तरह की आत्महीनता और कुंठा से और अमेरिका न बन पाने की हीनताग्रंथि से उपजी है। हम क्यों पूरी दुनिया की दौलत हड़पने के लिए दादागरी के रास्ते पर चलें, तानाशाहों और दुनिया के सभी तरह के कट्टरपंथियों को बढ़ावा देने के घिनौने रास्ते पर चलें? हमारे पास क्या समानता-बंधुत्व पर आधारित कोई दूसरा रास्ता नहीं है? कहा जा सकता है कि भाजपा और गुजरात सरकार तो तीन हजार करोड़ खर्च कर एकता का स्मारक बना रही है। अपनी सरकार और उसका कोष हो तो इतनी बड़ी राशि भी तुच्छ लगती है। लगता नहीं कि यह जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है! यह स्मारक तो बन जाएगा, मगर असली एकता का क्या होगा? क्या वह इसी तरह के प्रतीकों तक ही सीमित रहेगी या वह वाकई मोदीजी के इन पांच सालों में जमीन पर सुरक्षित रहने वाली है? मोदीजी एकता कैसे करेंगे और किस-किस की, किससे एकता स्थापित करेंगे? क्या इस एकता में देश के मुसलमान भी शामिल हैं? क्या सचमुच ही?

vishnu.nagar@yahoo.co.in