किसने, किसकी हद तोड़ी, विद्वान इस बारे में बहस करते रहेंगे। लेकिन यह इंसान और हिंसक जानवर के बीच की सनातन दुश्मनी की लड़ाई कतई नहीं थी, जिसमें एक हजार ग्रामीणों से घिरे एक तेंदुए को लाठियों और कुल्हाड़ी से वार करके मार डाला गया। इस हत्या के लिए सबसे ज्यादा कसूरवार वन विभाग और पुलिस विभाग के लोगों को ठहराया जाना चाहिए, जिनकी लापरवाही साफ उजागर है। अव्वल तो वे सूचना मिलने के दो घंटे बाद मौके पर पहुंचे, और दूसरे, उनकी ‘दक्षता’ ऐसी थी कि जाल डाल कर उसे पकड़ने में नाकाम रहे। यही एकमात्र तरीका था, जिससे उसे बचाया जा सकता था। यही एक काम था जो वन विभाग कर सकता था।

यह घटना गुड़गांव के सोहना कस्बे से सटे मंडावर गांव में गुरुवार को सुबह दस बजे घटी। पर्यावरणविदों का कहना है कि अरावली क्षेत्र में धनाढ्यों के बढ़ते फार्महाउसों की वजह से जंगली जीवों का रकबा घटता गया है और वे अक्सर अपने रहवास क्षेत्र से भूख या प्यास के कारण भटक कर गांवों की तरफ चले जाते हैं। उनके साथ अक्सर यही भीड़-तंत्र वाला ‘न्याय’ होता है यानी उन्हें घेर कर क्रूरतापूर्वक मार डाला जाता है। 12 जनवरी 2011 को फरीदाबाद में भी भीड़ ने ऐसे ही एक तेंदुए का मार डाला था। मंडावर गांव में ढाई साल का नर तेंदुआ सुबह आठ बजे खेतों में देखा गया। कुछ ग्रामीणों ने जाकर यह खबर गांव में दी। इससे पहले उसने छियालीस साल के एक व्यक्ति पर हमला कर दिया। इस हमले से सनसनी फैल गई। पुलिस और वन विभाग को जानकारी दी गई। वन विभाग की टीम को वहां पहुंचने में दो घंटे से ज्यादा समय लगा। इस बीच ग्रामीणों ने तेंदुए की घेरेबंदी कर ली तो वह भाग कर स्थानीय प्रायमरी पाठशाला में छिप गया। ग्रामीणों के शोरशराबे और र्इंट-पत्थरों की बौछार से बचने के लिए वह एक व्यक्ति के घर में भी घुस गया, जिससे ग्रामीण कुछ ज्यादा ही घबरा गए। इस बीच उसने भी कुछ लोगों पर झपट्टे मारे। खबर है कि इस बीच कई लोगों को उसने भी घायल किया।

विडंबना यह है कि एक तरफ केंद्र और राज्य सरकारें वन्यजीवों और अभयारण्यों को लेकर विज्ञापनों और कार्यक्रमों में संजीदगी दिखाती रही हैं, लेकिन धरातल पर जब उनकी रक्षा करने की बारी आती है तो सारी कवायद फुस्स हो जाती है। फिर, अनाप-शनाप शहरीकरण और वन्यक्षेत्रों में बढ़ते जाते अतिक्रमण की वजह से वन्यजीवों और दूसरे पशु-पक्षियों के विचरण का क्षेत्र कम होता गया है। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि कोई भूला-भटका जंगली जीव किसी बस्ती में घुस आए। लेकिन क्या किसी जीव को इस तरह मौत के घाट उतार दिया जाना वाजिब है? वन विभाग के कर्मचारियों के प्रशिक्षण पर हुए खर्च का क्या यही नतीजा निकलना था कि मौके पर पहुंच कर भी न तो वे तेंदुए को बेहोशी की डाट मार सके और न ही उनका जाल ही ऐसा था कि उसे पकड़ सकें। कैसा जाल था कि उसे चीर कर वह निकल भागा! अखबारों में ग्रामीणों के प्रहार से लहूलुहान तेंदुए को घसीटते हुए छपी तस्वीरें दर्दनाक हैं। एक तस्वीर में तो वह चारपाई के नीचे छिप कर डरा-सहमा ऐसे बैठा है कि ‘भीगी बिल्ली’ वाला मुहावरा ही चरितार्थ हो रहा है। वह भी ‘बड़ी बिल्ली’ ही तो था!