जाहिद खान
उर्दू अदब की बात हो और वह राजिंदर सिंह बेदी के नाम के बिना खत्म हो जाए, ऐसा मुमकिन ही नहीं है। बेदी, उर्दू के सदाबहार अफसानानिगार थे। अपनी दिलचस्प कथा शैली और जुदा अंदाजे-बयां की वजह से वे उर्दू अफसानानिगारों में अलग से ही पहचाने जाते हैं। कहानी लिखने में उनका कोई सानी नहीं था। बेदी के कथा साहित्य में जन जीवन के संघर्ष, उनकी आशा-निराशा, मोहभंग और अंदर-बाहर की विसंगतियों पर सशक्त रचनाएं मिलती हैं।
1 सितंबर, साल 1915 में अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मे राजिंदर सिंह बेदी की मातृ भाषा पंजाबी थी, लेकिन उनका सारा लेखन उर्दू में ही मिलता है। राजिंदर सिंह बेदी ने लेखक और फिल्मकार के रूप में खासी मकबूलियत पाई। उनकी पहली कहानी 1936 में आई। ‘महारानी का तोहफा’ यह कहानी ‘अदबी दुनिया’ पत्रिका के सालाना अंक में छपी थी। इस कहानी प्रकाशन के तीन साल बाद उनका पहला कहानी संग्रह ‘दाना-ओ-दाम’ प्रकाशित हुआ। इस कहानी संग्रह से ही उनका नाम उर्दू के बेहतरीन अफसानानिगारों की फेहरिस्त में शुमार होने लगा। सआदत हसन मंटो, कृश्न चंदर की तरह राजिंदर सिंह बेदी के अफसानों के भी चर्चे घर-घर में होने लगे।
लाहौर से प्रकाशित होने वाले उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘हुमायूं’ और ‘अदबी दुनिया’ में उनकी कहानियां प्रमुखता से प्रकाशित होती थीं। ‘दाना-ओ-दाम’ के बाद बेदी के चार कहानी संग्रह ‘गरहन’ (साल 1942), ‘कोखजली’ (1949), ‘अपने दुख मुझे दे दो’ (1965) ‘हाथ हमारे कलम हुए’ (1974) और प्रकाशित हुए। उर्दू में ही नहीं बल्कि हिंदी में भी बेदी की किताबों के कई संस्करण अभी तल प्रकाशित हो चुके हैं।
उनकी कहानी कला पर मशहूर शायर फिराक गोरखपुरी अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में टिप्पणी करते हुए लिखते हंै, ‘बेदी चाहे जिस क्षेत्र को चुनें, वे हमारी अनुभूतियों की कोई ऐसी रग छू देते हैं जिसका दु:ख पहले सोया हुआ होता है, लेकिन उनके स्पर्श से पूर्णत: जागृत हो जाता है।’ देश और पंजाब के बंटवारे पर बेदी ने ‘लाजवंती’ लिखी। जब भी बंटवारे पर लिखी कहानियों की बात होगी, ‘लाजवंती’ की बात जरूर होगी। बेदी की ज्यादातर कहानियों में महिलाओं के दु:ख-दर्द, जज्बात और उनकी समस्याएं बड़ी ही संजीदगी से नुंमाया हुई हैं। ‘लाजवंती’ से लेकर ‘युक्लिप्टस’, ‘बब्बल’, ‘एक लंबी लड़की’ और ‘दिवाला’ आदि। उनके एक मात्र उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ के केन्द्र में भी एक औरत ही है। साल 1962 में प्रकाशित इस उपन्यास को साल 1965 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उर्दू अदब के साथ-साथ राजिंदर सिंह बेदी का फिल्मों से भी गहरा नाता रहा। दीगर साहित्यकारों के बनिस्बत वे इस विधा में ज्यादा कामयाब रहे। उनका मानना था, ‘फिल्म, लघु कथा के करीब है।’ फिल्मों में बेदी को कामयाबी, उनके इसी नजरिए के ही बदौलत मिली। साल 1949 में उन्होंने फिल्म ‘बड़ी बहन’ से जो फिल्मों में पटकथा व संवाद लिखना शुरू किया, तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपनी जिंदगी के आखिर तक वे फिल्मों से जुड़े रहे। उन्होंने कई फिल्मों के संवाद और पटकथाएं लिखीं। उनकी सभी फिल्में एक से बढ़कर एक है। अमिय चक्रवर्ती की ‘दाग’, सोहराब मोदी की ‘मिर्जा गालिब’, विमल राय की ‘देवदास’ व ‘मधुमती’ ऋषिकेश मुखर्जी की ‘अनुराधा’, ‘अनुपमा’, ‘सत्यकाम’ व ‘अभिमान’ समेत कई फिल्मों के जानदार और हृदयस्पर्शी संवाद बेदी की कलम से ही निकले। फिल्म ‘देवदास’ के संवादों में जो सहजता और संवेदनशीलता दिखलाई देती है, वह राजिंदर सिंह बेदी की धारदार कलम का ही कमाल है। उर्दू-हिंदी पाठकों के दुलारे, बेहतरीन अफसानानिगार, फिल्म संवाद लेखक राजिंदर सिंह बेदी ने 11 नवम्बर, साल 1984 में हमसे अपनी आखिरी विदाई ली।