निर्माता विजय भट्ट अपनी नई फिल्म बनाने जा रहे थे, जिसमें वे दिलीप कुमार और नरगिस को लेना चाहते थे। वे, उनके बड़े भाई शंकरभाई भट्ट और संगीतकार नौशाद फिल्म पर चर्चा कर रहे थे। जब शंकरभाई को पता चला कि फिल्म में शास्त्रीय संगीत का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होगा, तो उन्होंने कहा कि इस फिल्म को देख कर लोग सिनेमाघरों में सो जाएंगे, क्योंकि ऐसे गाने दर्शक पसंद नहीं करते। नौशाद ने प्रतिवाद किया और कहा कि अपने देश का संगीत लोगों को पसंद नहीं आए, ऐसा कैसे संभव है। विजय भट्ट भी अड़ गए और इस तरह ‘बैजू बावरा’ बनी, जो न सिर्फ सुपर हिट साबित हुई बल्कि उससे कई फिल्में प्रभावित हुईं। ‘बैजू बावरा’ का असर काफी सालों बाद तक फिल्मों पर नजर आया। ‘बैजू बावरा’ (1952) दुखांत प्रेम कहानी के साथ ही भारतीय शास्त्रीय संगीत की ताकत भी दिखाती है, जिससे पत्थर भी पिघल सकते हैं। फिल्म में तानसेन और बैजू के बीच संगीत प्रतियोगिता होती है, (‘बैजू बावरा’ से प्रभावित फिल्मों में संगीत प्रतियोगिता खासतौर से देखी जा सकती है) जिसमें हारने वाले की मौत तय है। अकबर के दरबार में संगमरमर का एक टुकड़ा रख दिया जाता है और अपने गायन से बैजू उसे पिघला देता है। हारे हुए, समर्पण कर चुके तानसेन को मौत मिलनी थी। बैजू का बदला पूरा होना था, क्योंकि तानसेन के निवास के पास गाने के कारण उसके पिता को मार डाला गया था। बावजूद इसके जीतने के बाद- तानसेन की मौत संगीत की मौत होगी- कह कर बैजू उन्हें बचा लेता है।
इस फिल्म में उस्ताद आमिर खान और डीवी पलुस्कर जैसे मशहूर शास्त्रीय गायकों ने गाने गाए। ‘बैजू बावरा’ के लिए दिलीप कुमार और नरगिस की न तारीखें मिली, न मेहनताने पर बात बनी। तब विजय भट्ट ने भारत भूषण-मीना कुमारी को लेकर कम बजट में ‘बैजू बावरा’ बनाई। भारत भूषण दिलीप कुमार की टक्कर में कहीं नहीं आते थे। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आते थे, मगर उनकी उदास आंखों में गजब की कशिश थी। उन्हें कभी कुशल अभिनेताओं में शुमार नहीं किया गया। पर वे ‘बैजू बावरा’ में एकदम ऐसे फिट बैठे मानो अंगूठी में नगीना।
‘बैजू बावरा’ की कामयाबी से प्रभावित होकर 1956 में ‘बसंत बहार’ बनी, जिसके संगीतकार शंकर जयकिशन थे। इस फिल्म में टीपू सुलतान की अंग्रेजों पर जीत की खुशी में एक संगीत प्रतियोगिता होती है। जीतने वाले को राज गायक बनाया जाना था। फिल्म में मशहूर शास्त्रीय गायक भीमसेन जोशी और मन्ना डे के बीच संगीत प्रतियोगिता होती है। संयोग की बात है कि इस फिल्म के हीरो भी सपाट चेहरे वाला अभिनेता कहे जाने वाले भारत भूषण थे और फिल्म बॉक्स आॅफिस पर जबरदस्त हिट थी।
‘बैजू बावरा’ से प्रभावित होकर एक और फिल्म बनी थी। उसमें भी संगीत प्रतियोगिता का दृश्य खासतौर पर रखा गया था। यह फिल्म थी 1957 में बनी ‘रानी रूपमति’। रानी रूपमति में मांडू के सुलतान बाज बहादुर और रानी रूपमति की प्रेम कहानी दिखाई गई थी। फिल्म में तानसेन और रानी रूपमति के बीच एक संगीत प्रतियोगिता होती है। तानसेन के गाने (उड़ जा भंवर ) के दम पर कली खिल कर फूल बनने लगती है और उसके अंदर का भंवरा उड़ जाता है। बदले में रानी रूपमति अपने गायन के दम उस निर्मोही भंवरे को वापस उस फूल तक लाती है। भंवरा फूल पर बैठता और फूल बंद हो जाता है। तानसेन मालवा की मीरा कही जाने वाली रूपमति के गायन पर भावविभोर हो जाते हैं। और संयोग कि इस फिल्म में भी भारत भूषण हीरो थे।
विजय भट्ट (12 मई, 1907-17 अक्तूबर 1993): महात्मा गांधी ने अपने जीवन में एकमात्र फिल्म ‘रामराज्य’ (1942), देखी थी, जो विजय भट्ट ने बनाई थी। यह अमेरिका में दिखाई जाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी। विजय भट्ट ने एक छोटी-सी बच्ची महजबी बानो को अपनी फिल्म ‘लेदर फेस’ (1939) में मौका दिया, जोे बड़ी होकर मीना कुमारी बनीं। लेखक, निर्माता, निर्देशक विजय भट्ट सिनेमेटोग्राफर परवीन भट्ट के पिता थे और निर्देशक विक्रम भट्ट के दादाजी। शनिवार को उनकी 111वीं जयंती है।

