हर साल की तरह इस बार भी देश में बिजली का संकट गहराने लगा है। कई राज्य बिजली की भारी कमी से जूझ रहे हैं। रोजाना आठ-दस घंटे की बिजली कटौती हो रही है। सिर्फ घरों को ही नहीं, उद्योगों तक को बिजली नहीं मिल रही। बिजली के बिना किसान भी खेतों में काम नहीं कर पा रहे हैं। कोयले की भारी कमी की बात कह कर बिजलीघरों ने हाथ खड़े कर दिए हैं।
यानी अब आने वाले दिनों में बिजली की कटौती और पसीने निकालेगी। हालात बता रहे हैं कि यह संकट आसानी से खत्म नहीं होने वाला। जैसे ही गर्मी का मौसम शुरू होता है, बिजली की मांग बढ़ने लगती है और बिजलीघर कोयले की कमी का रोना रोने लगते हैं। पर हैरानी की बात यह है कि इसका स्थायी समाधान निकालने की दिशा में कुछ होता दिखा नहीं है। सवाल तो इस बात का है कि जब सरकार को पता है कि पिछले कई सालों से यह समस्या बनी हुई है, तो फिर इससे निपटने के लिए अब तक ठोस कदम क्यों नहीं उठाए गए? क्या बिजली संकट का मुद्दा प्राथमिकता में नहीं होना चाहिए? जब अंधेरे में डूबने की नौबत आने लगती है, तभी हमारी आंखें क्यों खुलती हैं?
जिन राज्यों में बिजली संकट ज्यादा है, उनमें पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र प्रमुख हैं। गर्मी के मौसम में बिजली की मांग बढ़ना कोई नई बात नहीं है। पिछले कुछ सालों के मुकाबले इस साल बिजली की मांग में भारी बढ़ोतरी की बात कही जा रही है। बताया जा रहा है कि पिछले अड़तीस साल में पहली बार इस वर्ष अप्रैल में बिजली की सबसे ज्यादा मांग बढ़ी। पर संकट की जड़ें बिजली की मांग में नहीं, उसके उत्पादन में हैं। जिस तेजी से शहरी आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए तो बिजली की मांग बढ़ेगी ही। फिर घरों में एसी से लेकर बिजली से चलने वाली तमाम चीजें उपयोग में होती हैं।
दूसरी ओर, उद्योगों को पर्याप्त बिजली चाहिए। वरना कारखाने और फैक्ट्रियों में उत्पादन होगा कैसे? जाहिर है, बिजली की मांग तो बढ़ती ही जाएगी। इसलिए सरकार का जोर बिजली उत्पादन और इससे जुड़ी तमाम चीजों और प्रक्रियाओं में आने वाली अड़चनों को दूर करने पर होना चाहिए, न कि इसे मौसमी संकट मानते हुए समस्या को फिर से अगले साल के लिए छोड़ देना चाहिए।
दरअसल बिजली उत्पादन का संकट सीधे-सीधे कोयले की कमी से जुड़ा है। बिजली संयंत्रों को कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो पा रही है। सामान्य स्थिति में बिजलीघरों के पास छब्बीस दिन का कोयला भंडार में रहना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ सालों से देखने में यही आ रहा है कि बिजलीघरों के पास तीन से पांच दिन का कोयला ही रह जाता है।
जबकि सरकार का दावा है कि कोयले की कमी नहीं है, बिजली कारखानों तक कोयले की ढुलाई के लिए रेलवे के पास पर्याप्त साधन हैं। तो फिर समस्या कहां है? क्यों ऐसी नौबत आती है कि बिजली संयंत्रों के पास पांच दिन या एक हफ्ते का ही कोयला भंडार रह जाता है? कोयले और गैस की कमी से कई बिजली संयंत्र क्यों बंद पड़े हैं? जाहिर है, समस्याएं बिजली उत्पादन से जुड़े बुनियादी ढांचे में हैं, जिसे हम अब तक नजरअंदाज करते रहे हैं। जब पता है कि हर साल गर्मी में ऐसे संकट से दो-चार होना पड़ता है और इसके बाद भी अगर स्थायी समाधान की दिशा में कदम नहीं उठते हों, तो क्या इसे व्यवस्था का दोष नहीं कहा जाना चाहिए?