भारतीय समाज अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान के लिए जाना जाता है। जिन तीन ऋणों को चुकाए बिना मुक्ति न मिलने की बात कही गई है, उनमें एक ऋण माता-पिता का भी है। यानी जिन माता-पिता ने पाल-पोस कर बड़ा किया, बुढ़ापे में उनकी सेवा सर्वोच्च मूल्य माना जाता है। मगर लगता है, ये मूल्य मटियामेट होते जा रहे हैं। माता-पिता, अपने बुजुर्गों के अनादर, उनके भरण-पोषण का उचित ध्यान न रखने, प्रताड़ना आदि की शिकायतें तो समाज में इक्का-दुक्का सुनने को मिलती रहती हैं, पर इसके प्रमाण एक ताजा सर्वेक्षण से भी उपलब्ध हैं। हेल्प-एज इंडिया के सर्वेक्षण से पता चलता है कि सैंतालीस फीसद बुजुर्ग आर्थिक रूप से अपने परिवार पर निर्भर हैं।
इस सर्वेक्षण को कई भागों में बांट कर अध्ययन किया गया है, जिसमें गंभीर पहलू यह है कि बुजुर्गों के पास पेंशन और जमा पूंजी न होने के कारण वे अपने परिवार के सदस्यों पर निर्भर हैं। उन्हें न तो माकूल चिकित्सा मिल पाती है और न स्वास्थ्य संबंधी दूसरी चीजें। वित्तीय रूप से कमजोर होने के कारण बहुत सारे बुजुर्गों को अपनी ही संतान से अपमान और अवहेलना मिलती है। मानवीय दृष्टि से यह स्थिति किसी स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कही जा सकती।
विचित्र है कि जो माता-पिता जीवन भर अपने बच्चों को पालने, पढ़ाने-लिखाने, उनका भविष्य संवारने में खपा देते हैं, बुढ़ापे में वही बच्चे उन्हें बोझ समझने लगते हैं। हमारे ही समाज की सच्चाई यह भी है कि बड़े शहरों में बहुत सारे बुजुर्ग वृद्धाश्रमों में रहते हैं। बहुत सारे बुजुर्ग भोजन-पानी, इलाज के लिए अपने बच्चों का मुंह जोहते हैं और रोज उनकी झिड़कियां सहते हैं। इस प्रवृत्ति के खिलाफ कितना कुछ लिखा जा चुका, कितनी फिल्में बन चुकीं, अनेक स्वयंसेवी संगठन इस समस्या को दूर करने के प्रयास में लगे हैं, पर हकीकत यह है कि बुजुर्गों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।
जिनके बच्चे उन्हें छोड़ कर दूसरे शहरों में चले गए हैं, उनकी आर्थिक और भावनात्मक समस्याएं तो अलग हैं, जो अपने बच्चों के परिवार का हिस्सा हैं, उन्हें भी सम्मान नहीं मिल पाता। पाई-पाई के लिए बच्चों पर निर्भर हैं। बहुत सारे बुजुर्गों ने अपनी कमाई का सारा पैसा बच्चों के लिए घर बनाने, उनकी पढ़ाई-लिखाई, दूसरी सुख-सुविधाओं आदि पर खर्च कर दिया और सेवानिवृत्ति के बाद खाली हाथ हैं। अगर कुछ पेंशन या जमा पूंजी है भी, तो सम्मान से गुजारे लायक नहीं है।
हालांकि सरकारें बुजुर्गों की समस्या को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा आदि का प्रबंध करती हैं। कुछ सरकारों ने पेंशन आदि की भी व्यवस्था की है, मगर वह सब कुछ इतना अपर्याप्त है कि उनकी तकलीफ दूर नहीं होती। इससे एक बार फिर लोगों की सामाजिक सुरक्षा का सवाल रेखांकित हुआ है। अब तो सरकारी नौकरियों में भी पेंशन की सुविधा नहीं, निजी संस्थानों की तो बात ही क्या।
भविष्य निधि आदि के पैसे में से बहुत सारे लोग नौकरी में रहते हुए ही खर्च कर चुके होते हैं, जो बचता है, वह जीवन भर काम नहीं आता। असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को तो उसका भी सहारा नहीं होता। अनेक बार लोगों की सामाजिक सुरक्षा को लेकर उपाय जुटाने की मांग उठी, पर किसी भी सरकार ने इस पर कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया। आने वाले समय में भी सरकारों की तरफ से सामाजिक सुरक्षा की सूरत नजर नहीं आती। जीवन के अखिरी पहर में बुजुर्गों की बदहाली भला कैसे दूर हो।