रायपुर की छाया वर्मा का उदाहरण बड़ा मौजूं है। कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में रायपुर से पार्टी के वरिष्ठ नेता सत्यनारायण शर्मा को टिकट दिया था। लेकिन फिर लोकसभा क्षेत्र के जातीय समीकरणों के मद्देनजर टिकट छाया वर्मा को दे दिया। छाया के टिकट की घोषणा के साथ ही रायपुर में जैसे सियासी भूचाल आ गया। भाजपा के उम्मीदवार रमेश बैस ने छाया को फ्यूज बल्ब कहा तो कांग्रेस में भी बगावत का झंडा बुलंद हो गया। लेकिन खास बात यह रही कि कांग्रेस ने मौके की नजाकत को समझा और छाया वर्मा से टिकट वापस लेकर फिर से शर्मा को थमा दिया। आलोचना तो उसकी भी होनी थी। हुई भी। लेकिन पार्टी ने हालात को समझा। दो साल बाद जब फिर से मौका आया तो नाराज छाया को मना कर उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। यह उदाहरण इसलिए कि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस मौके के अनुसार तर्कपूर्ण फैसले नहीं लेती है।
यही पंजाब में हुआ। प्रतापसिंह बाजवा कभी भी पंजाब कांग्रेस पर अपनी पकड़ नहीं बना सके। उनके खिलाफ विरोधियों के हमले कम और अपनों के ज्यादा होते थे। लेकिन पार्टी ने उन्हें समय दिया। लेकिन जब वे नाकाम रहे तो पंजाब की कमान कैप्टन अमरिंदर सिंह को सौंप कर बाजवा को राज्यसभा का रास्ता दिखाया गया। पंजाब में अगले साल चुनाव हैं। अमरिंदर ने अमृतसर लोकसभा क्षेत्र से वित्त मंत्री अरुण जेटली को पछाड़ कर अपनी राजनीतिक श्रेष्ठता सिद्ध की थी। यह दीगर है कि कांग्रेस के हारे हुए खिलाड़ियों के लिए राज्यसभा ही पनाहगाह होती है। अंबिका सोनी, जिनका नाम पंजाब कांग्रेस व मुख्यमंत्री के लिए भी चर्चा में रहता था, को भी आनंदपुर साहब लोकसभा क्षेत्र में मुंह की खानी पड़ी। अब वे पंजाब से राज्यसभा की सदस्य बनाई गई हैं।
हरियाणा में दो कार्यकाल तक रहकर भी भूपिंदर सिंह हुड्डा अपनी सरकार नहीं बचा पाए तो जब कांग्रेस विधायक दल का नेता चुनने की बात आई तो यह जिम्मा किरण चौधरी को दे दिया गया। हरियाणा के सबसे सधे हुए युवा नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला को राष्टÑीय स्तर पर मीडिया प्रबंधन की बड़ी जिम्मेदारी दी गई जबकि हुड्डा अब सिर्फ विधायक हैं। मौका देख कर दो चुनाव में कांग्रेस की जबर्दस्त मुखालफत करने वाले कुलदीप बिश्नोई ने जब पनाह के लिए कांग्रेस का द्वार खटखटाया तो उन्हें भी वापस ले लिया गया। इन उदाहरणों से तय होता है कि पार्टी कभी भी किसी से मोह नहीं पालती और मौका देखते ही फैसला लेती है।