संसद सत्र की शुरुआत के अवसर पर रिवायत के अनुरूप राष्ट्रपति ने सोमवार को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित किया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का संसद में यह पहला संबोधन था। अपने इस अभिभाषण में उन्होंने दो प्रमुख मुद्दे उठाए। यह कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए। दूसरे, उन्होंने तीन तलाक प्रथा के विरुद्ध लंबित विधेयक को पारित करने की अपील की। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि इसी रोज राजग नेताओं की बैठक में प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने सारे चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में माहौल बनाने को कहा। मोदी डेढ़-दो साल से एक साथ चुनाव का मुद्दा उठाते आ रहे हैं। चूंकि राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकार की ही नीतियां और प्राथमिकताएं प्रतिबिंबित होती हैं, इसलिए राष्ट्रपति के संबोधन में सारे चुनाव एक साथ कराने का आह्वान स्वाभाविक ही है। सवाल है इससे हासिल क्या होगा, और क्या यह संभव या व्यावहारिक है? लोकसभा तथा सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के कई लाभ गिनाए जा सकते हैं।
सारे चुनाव एक साथ होने से, चुनाव संपन्न कराने पर होने वाला खर्च कम हो जाएगा। संसाधनों के साथ-साथ प्रशासनिक ऊर्जा और समय की भी बचत होगी। चुनाव आयोग और सरकारों के अलावा पार्टियों को भी जल्दी-जल्दी चुनाव में नहीं उलझना होगा। इससे राजनीतिक माहौल में कटुता भी कम होगी। अभी तो हाल यह है कि एक राज्य का चुनाव निपटता नहीं कि किसी और राज्य में चुनाव की सुगबुगाहट सुनाई देने लगती है। शायद ही कोई साल बीतता हो जब चुनाव का बिगुल न बजे। कई बार तो दो चुनावों के बीच कुछ महीनों का ही अंतराल रहता है। इस सब का असर सरकारों की नीतियों और फैसलों तथा राजनीतिक दलों के सोच व व्यवहार पर भी पड़ता है। सरकारों पर हमेशा लोकलुभावन कदम उठाने का दबाव बना रहता है, और राजनीतिक पार्टियों की दिलचस्पी ज्यादातर इसी बात में रहती है कि किस तरह आसानी से वोट खींचने वाले मुद्दों को तूल दिया जाए। कहा जा रहा है कि अगर लोकसभा तथा सारी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हों, तो संसाधन तथा समय की बचत के साथ-साथ सरकारों और राजनीतिक दलों को तात्कालिक दबावों से बचाया जा सकेगा, और फिर उनका ध्यान दीर्घकालीन हित वाले मुद्दों पर ज्यादा रहेगा। इन तर्कों को खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन इस मसले पर चली बहसों में कई सवाल भी उभरे हैं। मसलन, विभिन्न विधानसभाओं का कार्यकाल अलग-अलग है। क्या सारी राज्य सरकारों को समय से पहले चुनाव कराने के लिए राजी किया जा सकेगा।
अगर यह हो भी जाए, तो भविष्य में किसी सरकार के अल्पमत में आने पर क्या वहां चुनाव नहीं होगा, या वहां चुनाव कब तक रोका जाएगा। कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि निश्चित कार्यकाल तक बने रहने की अनिवार्यता एक अलोकप्रिय सरकार को भुगतने के रूप में सामने आएगी। बीच में कोई चुनाव न होने से कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि अभी राजनीतिक दलों पर जनोन्मुखी होने का थोड़ा-बहुत दबाव रहता है वह काफी कम या नाममात्र का रह जाएगा। सारे चुनाव एक साथ कराने के फायदे जहां मायने रखते हैं वहीं इन सवालों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। फिर, यह एक ऐसा मसला है जिस पर विपक्षी दलों की रजामंदी के बगैर कुछ नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान संशोधन की जरूरत पड़ेगी। अगर सरकार इस मसले पर संजीदा है तो उसे विपक्ष की शंकाओं का समाधान करने की भी तैयारी दिखानी चाहिए।