संयुक्त राष्ट्र में हुए मतदान के परिणाम से जाहिर है कि पूर्वी यरुशलम के मसले पर अमेरिका अलग-थलग पड़ गया है। मतदान का यह नतीजा ट्रंप के एक निहायत अनुचित फैसले पर दुनिया भर में जैसी प्रतिक्रिया हुई उसके अनुरूप ही है। गौरतलब है कि हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरुशलम को इजराइल की राजधानी की मान्यता देते हुए वहां के अमेरिकी दूतवास को तेल अवीव से यरुशलम स्थानांतरित करने की घोषणा की थी। इस तरह, उन्होंने दशकों से चली आ रही अमेरिकी नीति को पलट दिया और अपनी कूटनीतिक परिपक्वता व दूरदर्शिता को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। उनके इस फैसले पर स्वाभाविक ही दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। पुराने मित्र ब्रिटेन और फ्रांस तक खफा हो गए। ट्रंप के इस फैसले के खिलाफ तुर्की और यमन की तरफ से लाए गए प्रस्ताव पर गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र महासभा में मतदान हुआ। प्रस्ताव में मांग की गई थी कि यरुशलम को इजराइल की राजधानी की मान्यता देने और वहां अपना दूतावास स्थानांतरित करने के अपने फैसले को अमेरिका वापस ले। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य-देशों में से 128 ने प्रस्ताव के पक्ष में यानी अमेरिका के खिलाफ वोट दिया। इनमें भारत भी शामिल था। जबकि प्रस्ताव के विरोध में केवल नौ वोट पड़े। पैंतीस देश मतदान में शामिल नहीं हुए।
ट्रंप ने धमकी दे रखी थी कि जो देश प्रस्ताव का साथ देंगे, उनको अमेरिका से मिलने वाली वित्तीय सहायता रोक दी जाएगी। हो सकता है इस धमकी के चलते कुछ देश मतदान में शामिल न हुए हों। पर प्रस्ताव को 128 देशों का समर्थन मिलना और विरोध में केवल 9 वोट पड़ना, यह बताता है कि दुनिया इस बात के खिलाफ है कि यरुशलम को इजराइल की राजधानी मान लिया जाए। इजराइल के वजूद में आने के बाद भी पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तीन का कब्जा बना रहा था, 1967 के युद्ध में इजराइल ने उसे भी हड़प लिया। इजराइल और फिलस्तीन के बीच जो सबसे चुभने वाले मुद््दे रहे हैं उनमें यरुशलम भी है। पूर्वी यरुशलम पर फिलस्तीन अपना दावा जताता रहा है। साथ ही, दुनिया भर में आम भावना फिलस्तीन के इस दावे के पक्ष में रही है। दुनिया यह भी मानती रही है कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच चले आ रहे विवाद का समाधान दो राष्ट्र के सिद्धांत के तहत ही हो सकता है। लेकिन इजराइल ने हमेशा विश्व-मत की अवहेलना की है और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों को ठेंगा दिखाया है।
इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अब भी वही हेकड़ी वाली भाषा बोल रहे हैं। प्रस्ताव से कुपित नेतन्याहू ने संयुक्त राष्ट्र को झूठ का घर कहने में तनिक संकोच नहीं किया। ट्रंप भी ताकत के अहंकार की भाषा बोल रहे हैं। आखिर वे प्रस्ताव के खिलाफ वोट देने वाले देशों को वित्तीय सहायता बंद करने की चेतावनी देकर क्या संदेश देना चाहते थे? इस चेतावनी के बावजूद केवल नौ देशों ने अमेरिका का साथ दिया, और इनमें भी कोई दुनिया का बड़ा देश या अग्रणी अर्थव्यवस्था वाला देश नहीं है। वित्तीय सहायता रोकने की धमकी देना कूटनीतिक शालीनता के खिलाफ तो था ही, धमकी के बावजूद मतदान का जो नतीजा आया उससे एक महाबली के रूप में अमेरिका की छवि को धक्का लगा है।