सुप्रीम कोर्ट ने एक साल पहले छह सितंबर को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 377 को खत्म कर दिया था। इस फैसले के बाद वयस्कों के बीच मर्जी से समलैंगिक संबंधों को अपराध नहीं अधिकार मान लिया गया। तब संविधान पीठ ने अपने फैसले में सर्वसम्मति से व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 377 का एक हिस्सा संविधान में प्रदत्त समता और गरिमा के साथ जीने की आजादी प्रदान करने वाले 14 और 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
अब एक साल बाद समलैंगिक संबंधों को सामाजिक मान्यता के तहत बुनियादी मानवाधिकारों की बात उठाई जा रही है। समलैंगिक विवाह, उनके द्वारा बच्चा गोद लेने, किराए की कोख से संतान प्राप्त करने और आइवीएफ तकनीक से गर्भधारण जैसे अधिकारों को मान्यता की मांग उठ रही है। इस वर्ग की यह दलील है कि इन अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में मान्यता नहीं मिलने की वजह से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 और 29 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।
आज की मांग का आधार बन रहा तब का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने तब अपने फैसले में टिप्पणी की थी कि सामाजिक नैतिकता की वेदी पर संविधान को शहीद नहीं किया जा सकता और कानून के शासन में सिर्फ संविधान की हुकूमत को ही इजाजत दी जा सकती है। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति के फैसले में कहा था कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को भी संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्राप्त है। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थीं।
शीर्ष अदालत की इस टिप्पणी को प्रमुख आधार बनाते हुए समलैंगिक (एलजीबीटीक्यू) समुदाय अब अपने लिए समावेशी कानून की मांग करने लगा है। यह समुदाय अपने अधिकारों को संरक्षित करने की मांग करने लगा है। एक विधिक संस्था ने समलैंगिक जोड़ों की चिंताओं को समायोजित करते हुए हाल में रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें ऐसे कानूनों की पहचान की गई है, जो स्त्री और पुरुष ढांचे के तहत ही काम करता है और एलजीबीटीक्यू समुदाय से विभेद करता है। पहचान, हिंसा, परिवार और रोजगार के पहलुओं पर अध्ययन किया गया है।
देश में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से ऐसे विवाह करने वाले सामने आने लगे हैं। शायद ऐसा करने वाले समलैंगिक जोड़ों को उम्मीद है कि देर सबेर उनके समुदाय को विवाह करने सहित कई अन्य नागरिक अधिकार मिल जाएंगे। एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्य अलग-अलग मंचों से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहे हैं। वयस्कों के बीच स्वेच्छा से बनाये गये समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के बाद लोग अब समलैंगिक विवाह, गोद लेने और किराए की कोख का इस्तेमाल करके संतान सुख प्राप्त करने जैसे नागरिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं।
नागरिक अधिकारों की मांग करते हुए समलैंगिक समुदाय ने पिछले साल के उस बड़े फैसले के बाद ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। तब अदालत ने समाज और लोगों के नजरिए में बदलाव लाने पर जोर देते हुए कहा था, ‘समलैंगिकता एक जैविक तथ्य है और इस तरह के लैंगिक रुझान रखने वाले समुदाय के सदस्यों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव उनके मौलिक अधिकारों का हनन है।’
एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्य तुषार नैयर ने अपने वर्ग के सदस्यों के लिए समलैंगिक विवाह, बच्चा गोद लेने और किराए की कोख से संतान सुख प्राप्त करने जैसे नागरिक अधिकारों की मांग की। शीर्ष अदालत ने 29 अक्तूबर, 2018 को यह याचिका खारिज कर दी थी। अदालत ने इस साल 11 जुलाई को उनकी पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी।
समलैंगिक जोड़ों के सामाजिक जीवन की चिंता
धारा 377 के प्रावधान के बारे में संविधान पीठ की व्यवस्था के साथ ही इस बात की संभावना बढ़ गई है कि भविष्य में समलैंगिक जीवन गुजार रहे जोड़ों की शादी, उनके लारा बच्चे गोद लेने की कवायद, ऐसे जोड़ों में उत्तराधिकारी का मुद्दा, घरेलू हिंसा और संबंध विच्छेद होने की स्थिति में गुजारा भत्ता जैसे कई अन्य मुद्दे भी उठेंगे जिनका संबंध दूसरे कानूनों से होगा। इस समय हमारे देश के दीवानी और विभिन्न धर्माे के कानूनों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह का कोई प्रावधान नहीं है। इसी तरह, कानून में ऐसे जाड़ों के लिए बच्चा गोद लेने की भी व्यवस्था नहीं है।
ऐसे में एलजीबीटीक्यू समुदाय उनके नागरिक अधिकारों को बुनियादी मानव अधिकारों का हिस्सा बनाने की मांग कर रहा है, क्योंकि धारा 377 के बारे में संविधान पीठ के फैसले में इन अधिकारों पर विचार ही नहीं किया गया। यह समुदाय चाहता है कि समलैंगिक विवाह, उनके द्वारा बच्चा गोद लेने, किराए की कोख से संतान प्राप्त करने और आइवीएफ जैसे अधिकारों को मान्यता दी जाए ताकि वे भी सेना, नौसना और वायु सेना में खुलकर शामिल हो सकें और उनके यौन रुझान के आधार पर उनके साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं हो। इस वर्ग की यह भी दलील है कि इन अधिकारों को मानव अधिकार के रूप में मान्यता नहीं मिलने की वजह से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 और 29 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।
समलैंगिक अधिकारों के संरक्षण के लिए समावेशी कानून का तर्क
एलजीबीटीक्यू समुदाय अब अपने लिए समावेशी कानून की बात उठा रहा है। ‘विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी’ ने इस विषय पर अध्ययन किया है। अध्ययन का विषय है, ‘क्वियरिंग द लॉ : मेकिंग इंडियन लॉज एलजीबीटी प्लस इंक्लूसिव’। इसमें पहचान, हिंसा, परिवार और रोजगार के मुद्दों पर व्यापक अध्यन किया गया है।
इस अध्ययन का उद्देश्य ऐसे कानूनों की पहचान करना है जो स्त्री और पुरुष ढांचे के अंतर्गत काम करता है या एलजीबीटी सदस्य के खिलाफ भेदभाव करता है। विधि शोध टीम के अक्षत अग्रवाल के मुताबिक, ‘इस अध्ययन का मकसद समावेशी कानून को स्थापित करने के लिए बातचीत शुरू करना है।’ अध्ययन के मुताबिक समलैंगिक संबंध को गैर-आपराधिक बनाने के बाद घरेलू हिंसा की वारदातों में इजाफा हुआ है। दबाव में हुई शादियों से लोग बाहर निकलना चाहते हैं, जिससे हिंसा अधिक बढ़ी है।