सरकार पर आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य कई मुसलिम संगठनों की नाराजगी कोई हैरानी का विषय नहीं है। तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की बाबत जब सर्वोच्च अदालत में केंद्र ने अपना रुख हलफनामे के तौर पर पेश किया, तभी यह लगने लगा था कि मुसलिम संगठनों से तनातनी तय है। केंद्र से पहले मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपना पक्ष रख चुका था। बोर्ड के हलफनामे में दो बातें खास थीं। एक यह कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय पहले ही फैसला सुना चुका है, इसलिए नए सिरे से सुनवाई का कोई औचित्य नहीं है। दूसरा यह कि मुसलिम पर्सनल लॉ में संशोधन, धार्मिक स्वतंत्रता के संविधान-प्रदत्त अधिकार का हनन होगा, इसलिए इसकी पहल हरगिज नहीं होनी चाहिए। दूसरी तरफ, पिछले हफ्ते पेश किए गए केंद्र के हलफनामे में तीन तलाक, निकाह हलाला और बहुविवाह की मुखालफत की गई है और यह तर्क दिया गया है कि ये रिवाज लैंगिक समानता तथा कानून के समक्ष समानता जैसे मूलभूत नागरिक अधिकारों के विरुद्ध हैं। गौरतलब है कि कुछ मुसलिम महिलाओं की याचिका पर ही इस मसले पर सर्वोच्च अदालत में कुछ महीनों से सुनवाई चल रही है। इसी दौरान विधि आयोग ने एक प्रश्नावली जारी कर मुसलिम पर्सनल लॉ के विवादित पहलुओं पर लोगों की राय मांगी है। मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड, आयोग के इस कदम से भी खफा है। इस प्रश्नावली का विरोध करते हुए मुसलिम संगठनों ने यह तक कहा है कि सरकार मुसलिम समुदाय के खिलाफ ‘युद्ध’ छेड़ना चाहती है।
अलबत्ता आयोग की तरफ से जारी किए गए सोलह सवालों में संपत्ति के अधिकार में हिंदू महिला का पक्ष मजबूत करने के उपाय तलाशने और ईसाई समुदाय में तलाक के लिए प्रतीक्षा की अवधि घटाने के प्रस्ताव जैसी बातें भी शामिल हैं। पर तल्खी पैदा करने वाले सवाल वही हैं जो मुसलिम पर्सनल लॉ से ताल्लुक रखते हैं। इस सिलसिले में मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उसके साथ खड़े मुसलिम संगठन सरकार की मंशा पर तो सवाल उठा रहे हैं, लेकिन वे इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रहे हैं कि पर्सनल लॉ पर पुनर्विचार क्यों नहीं होना चाहिए। यह सही है कि संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, लेकिन यह असीमित और निर्बाध नहीं है; यह मूलभूत नागरिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। संविधान ने ही सभी नागिरकों को कानून के समक्ष समानता और लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव न किए जाने की गारंटी दे रखी है। फिर, अनेक मुसलिम बहुल देशों ने जब पर्सनल लॉ में बदलाव किए हैं और उन्हें देश-काल के अनुरूप ढाला है, तो भारत में इस मामले में पुनर्विचार क्यों नहीं हो सकता? इस्लाम की चार मान्य या प्रचलित व्याख्याएं होना यही बताता है कि पसर्नल लॉ के प्रावधानों को अधिक युक्तिसंगत और अधिक न्यायसंगत बनाने से इस्लाम पर कोई आंच नहीं आएगी। हां, यह बेहतर होगा कि सर्वोच्च अदालत के पहले के फैसले को देखते हुए इस मामले को पांच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंप दिया जाए। दूसरा तकाजा, इस मामले में राजनीतिक सावधानी बरतने का है। इस मामले के एक तल्ख सियासी विवाद और फिर एक तरह के ध्रुवीकरण का जरिया बन जा सकने का खतरा मौजूद है। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि इसमें किन-किन की दिलचस्पी होगी! इस खतरे से पार पाना होगा, ताकि संबंधित विषय पर पूर्वाग्रहों से रहित और गहरे लोकतांत्रिक अर्थ में विचार-विमर्श संभव हो सके।