फिल्म के केंद्र में है बनारस यानी वाराणसी का एक मुसलिम परिवार। परिवार में दो भाई हैं- मुराद अली मोहम्मद (ऋषि कपूर) और बिलाल मोहम्मद (मनोज पाहवा)। बिलाल का बेटा शाहिद (प्रतीक बब्बर) एक आतंकी कार्रवाई में मारा जाता है और फिर शुरू होता है मोहम्मद परिवार की परेशानियों का एक लंबा सिलसिला। पुलिस और प्रशासन की तरफ से तहकीकात तो होती ही है, साथ ही समाज में कई लोग भी मोहम्मद के घर को आतंकवादियों का अड्डा बताने में जुट जाते हैं। अदालत में सरकारी वकील (आशुतोष राणा) मोहम्मद परिवार की देशभक्ति पर सवाल उठाता है। ऐसे में परिवार के पक्ष में अदालत में खड़ी होती है मोहम्मद परिवार की बहू आरती। आरती जन्म से हिंदू है लेकिन वह मुसलिम लड़के से शादी करती है। वह वकील भी है। क्या आरती मोहम्मद परिवार की प्रतिष्ठा बचा पाएगी और उस दामन को साफ कर पाएगी जिस पर आतंकवादी समर्थक होने का दाग लगा है?
बेशक वैचारिक स्तर पर ‘मुल्क’ एक संवेदनशील और बेहतर फिल्म है। यह उस बहस को केंद्र में लाती है जो भारत के हर गली-कूचे में होती है। वह बहस हैं ‘हम बनाम तुम’ की। ‘हम’ का मतलब मोटे तौर पर हिंदुओं को माना जाता है व इन्हें ही भारतीयता का पर्याय बताया जाता है और ‘तुम’ यानी मुसलमान। जाहिर है इस ‘हम’ में पूरा भारत शामिल नहीं है जैसा कि भारत का संविधान कहता है। अदालत की पूरी बहस इसी मुद्दे से उलझती हुई आगे बढ़ती है। इस लिहाज से कहना पड़ेगा कि अनुभव सिन्हा ने एक मौजूं बात को सामने रखा है। तापसी पन्नू, ऋषि कपूर और आशुतोष राणा का शानदार अभिनय भी फिल्म को बेहतर बनाता है। बतौर वकील तापसी ने अदालत में जो जिरह की है वह हिंदी सिनेमा में लंबे वक्त तक याद रखी जाएगी। इस मौके पर यह भी कहना पड़ेगा कि जिस कलाकार का अभिनय बेहद करीब से दिल को छूता है वो हैं मनोज पाहवा।
बिलाल की मोहम्मद की भूमिका के जरिए उन्होंने उस शख्स के भीतर मचलते तूफान को दर्शाया है जिसका बेटा मारा गया है, वह खुद पुलिस की गिरफ्त में है और उसका परिवार बिखर रहा है। वह मर भी जाता है या मार दिया जाता है (मारने के संकेत फिल्म में हैं) मनोज पाहवा ने एक ऐसे शख्स का दर्द बयां किया है, जिसकी पूरी दुनिया रातोंरात उजड़ गई है। फिल्म कुछ कमजोरियां भी हैं। पहली, यह कि अंत तक आते-आते फिल्म भाषणबाजी में सिमटने लगती है। एक ऐसा अंत जिसमें लगता है कि निर्देशक को संविधान की मूल भावना बताने के अलावा फिल्म को समेटने का कोई रास्ता नहीं सूझा। फिल्म के अंत से दस मिनट पहले ही दर्शकों को पता चल जाता है कि आगे क्या होने वाला है।
दूसरी खामी यह है कि फिल्म में कहीं भी ‘बनारस’ नहीं दिखता। अगर कोई निर्देशक यथार्थवादी शैली की फिल्म बना रहा है तो उसमें उस जगह की झलक जरूर मिलनी चाहिए जहां पर फिल्म आधारित है। बनारस कई चीजों के अलावा अपनी बोली के लिए मशहूर है, लेकिन फिल्म का कोई भी किरदार बनारसी में नहीं बोलता है- न मुराद अली और न उसके हिंदू पड़ोसी चौबे जी और सोनकर जी। वे खड़ी बोली ही बोलते हैं। वह भी एक-दो जगह बनावटी सी हो गई है। फिल्म की शुरुआत में प्रह्वाद सिंह टिपान्या का कबीर गायन मन में उतरने वाला है।