गीतकार जयदेव 50 के दशक में मशहूर संगीतकार सचिन देव बर्मन (एसडी बर्मन) के सहायक बने, जो देव आनंद के पसंदीदा संगीतकार थे। देव उनके बिना फिल्म बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। देव को मजबूरी में ‘हम दोनों’ के लिए एसडी बर्मन के सहायक जयदेव को लेना पड़ा। जयदेव ने फिल्म में मधुर संगीत बनाया, तो देव आनंद को विवश होकर उन्हें अपनी अगली फिल्म ‘गाइड’ में लेना पड़ा था। 1952 में चेतन आनंद की ‘आंधियां’ में उस्ताद अली अकबर खान ने संगीत दिया। फिल्म कान फिल्मोत्सव में पुरस्कृत हुई। खूब चर्चा हुई मगर फिल्म नहीं चली। फिर इसी कंपनी की 1953 की ‘हमसफर’ में भी खान को सफलता नहीं मिली तो उन्होंने फिल्मों को ही अलविदा कह दिया। इन दोनों ही फिल्मों में जयदेव उनके सहायक थे। अली अकबर खान के जाने के बाद जयदेव एसडी बर्मन के सहायक बन गए।
एसडी बर्मन के सहायक के तौर पर जयदेव ने जमकर काम किया। उनका म्यूजिक अरेंजमेंट जयदेव देखते थे ( हालांकि जयदेव ने यह काम खेमचंद प्रकाश और मदन मोहन जैसे संगीतकारों के लिए भी किया)। बतौर सहायक जयदेव ने एसडी बर्मन की ‘टैक्सी ड्राइवर’ (1954), ‘मुनीमजी’, ‘हाउस नंबर 44’ (1955) ‘कालापानी’ (1958) और सुजाता (1959) जैसी फिल्मों में काम किया। 1961 में जब एसडी बर्मन व्यस्त थे, तब पहली बार लंबे समय से नवकेतन में काम कर रहे जयदेव को देव आनंद ने आगे बढ़ाया और ‘हम दोनों’ का संगीत उन्हें सौप्ाां। 1957 में लता मंगेशकर और एसडी बर्मन में दूरियां पैदा हो गई थीं और लता मंगेशकर नवकेतन के लिए नहीं गा रही थीं। मगर देव आनंद की पहलकदमी के बाद लता ‘हम दोनों’ में गाने के लिए तैयार हो गईं। इस फिल्म के ‘अल्ला तेरो नाम’, ‘अभी न जाओ छोड़ कर’,‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’, ‘कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया’ जैसे गाने खूब चले। फिल्म भी हिट रही।
माना जा रहा था कि देव आगे भी अपनी फिल्मों में जयदेव को बतौर संगीतकार मौका देंगे। और ऐसा हुआ भी। 1963 की फिल्म ‘गाइड’ के संगीत की जिम्मेदारी जयदेव को दी गई। कहा जाता है कि फिल्म के दो गाने ‘दिन ढल जाए…’ और ‘तेरे मेरे सपने…’ भी जयदेव ने रेकॉर्ड कर लिए थे। फिर पता नहीं क्या हुआ कि ‘गाइड’ में एसडी बर्मन का आगमन हो गया। जयदेव जिनके लंबे समय तक सहायक रहे थे, ‘गाइड’ में उनकी जगह पर एसडी बर्मन के बेटे राहुल देव बर्मन सहायक बने। जयदेव ने भरे मन से नवकेतन छोड़ दिया। नवकेतन छोड़ने के बाद जयदेव ने खुद को साबित किया और सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार तीन बार जीता। रेशमा और शेरा (1971), गमन (1979) और अनकही (1985) में।
‘रेशमा और शेरा’ का ‘तू चंदा मैं चांदनी…’ और ‘गमन’ का ‘सीने में जलन…’ ने लोकप्रियता का शिखर छुआ। उन्होंने महाकवि बच्चन की ‘मधुशाला’ को मन्ना डे के सुरों में संगीतबद्ध किया। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की कविताओं को संगीत में ढाला। धारावाहिक ‘रामायण’ में संगीत दिया। ‘गमन’ जैसी हिट फिल्म देने के बावजूद मुजफ्फर अली ने अपनी अगली फिल्म ‘उमराव जान’ के संगीत की जिम्मेदारी जयदेव को न देकर खय्याम को दी क्योंकि खय्याम सफल संगीतकार थे। सुनील दत्त ने भी ‘दीपक’, ‘मुझे जीने दो’, ‘रेशमा और शेरा’ में हिट संगीत के बावजूद अपनी फिल्म ‘नहले पे दहला’ (1976) में जयदेव को पीछे कर आरडी बर्मन को लिया। आखिर जयदेव की प्रतिभा संगीतकार मदन मोहन की तरह सफलता से मिलने वाली प्रतिष्ठा की मोहताज हो कर रह गई। एक-एक कर सभी उनसे किनारा करते चले गए। आखिरी दम तक जयदेव का अगर किसी ने साथ दिया तो वह था दमे की बीमारी, जिससे वह लंबे समय तक जूझते रहे।
