पहला खाड़ी युद्ध (1990) तेल की खातिर हुआ था: अरब जगत के तेलक्षेत्रों पर किन कंपनियों का नियंत्रण रहेगा? नार्वे ने समझदारी दिखाते हुए तेल पर मिलने वाले राजस्व से एक भविष्य कोष बनाया, इसके इस्तेमाल पर सख्त नियंत्रण और राजकोषीय अनुशासन लागू किया। लातिन अमेरिकी अर्थव्यवस्थाएं अपने तेल राजस्व के इस्तेमाल के ढंग की वजह से ही या तो फली-फूलीं या तबाह हो गर्इं। दुनिया के ज्ञात तेल भंडारों में से कुछ सबसे बड़े भंडारों का मालिक होने के बावजूद वेनेजुएला की हालत बड़ी नाजुक है। कई सालों से रूस अपना सालाना बजट यह सोच कर बनाता रहा है कि कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल या उससे ऊपर पहुंच जाएंगी। जब तेल की कीमतें लुढ़केंगी, तो रूसी अर्थव्यवस्था का भी वही हाल होगा।
अप्रत्याशित लाभ
किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए तेल एक बहुत अहम चीज है। तेल आयात पर भारत की निर्भरता अस्सी फीसद है। जब 2014 में तेल की कीमतें काफी नीचें आ गर्इं और इससे एक अप्रत्याशित लाभ की स्थिति बनी, तो नीची कीमतों के आधार पर केंद्रीय बजट बनाया गया। तेल की नीची कीमतों ने भाजपा-राजग सरकार और राज्य सरकारों के लिए यह गुंजाइश पैदा की कि वे उपभोक्ताओं पर अधिक से अधिक टैक्स लादें, और बिना महंगाई का जोखिम मोल लिये खूब संसाधन जुटाएं। जहां तक व्यय का सवाल है, रसोई गैस, केरोसीन और फर्टिलाइजर पर सबसिडी घटा दी गई। सरकार ने रेलवे और दूसरे महकमों में भी खर्चों में बचत की। कुल मिलाकर, सरकार के लिए यह बहुत अनुकूल समय था: उसने अप्रत्याशित लाभ की फसल काटी, बिना इस पर तनिक विचार किए, कि जब तेल की कीमतें फिर बढ़ेंगी तो वह क्या करेगी। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने हाल के वर्षों में पेट्रोल और डीजल पर करों के जरिए जो राजस्व इकट्ठा किया उस पर नजर डालें। (देखें तालिका) तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों से संबंधित करों पर निर्भरता बढ़ गई। केंद्र सरकार के कुल राजस्व में ऐसे करों का हिस्सा लगातार बढ़ते हुए 2013-14 के 15 फीसद से 2016-17 में 24 फीसद हो गया। इसके विपरीत, पेट्रोलियम सेक्टर से संबंधित राज्य सरकारों के करों का हिस्सा उनके कुल राजस्व में 2103-14 के 10 फीसद से घट कर 2016-17 में 8 फीसद रह गया।
वसूलो और खर्चो की नीति नाकाम
भाजपा-राजग सरकार ने ‘टैक्स लगाओ और खर्चो’ की रणनीति अख्तियार की। वर्ष 2014-15 से 2016-17 के बीच सरकारी खर्चे तेजी से बढ़े। यह मान कर चला गया कि अधिक सरकारी व्यय से आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा और फिर निजी निवेश का तांता लग जाएगा। वैसा हुआ नहीं। मेक इन इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया जैसे अनेक नारों के बावजूद निजी निवेश नहीं हो रहा है। कुल निश्चित पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) 2013-14 के 31.30 फीसद से गिर कर 2017-18 में 28.49 फीसद पर आ गया। इसमें से, निजी पूंजी निर्माण 24.20 फीसद से कम होकर 21.38 फीसद पर आया (2016-17 तक)। स्टार्ट अप इंडिया फुस्स साबित हुआ। यह आधिकारिक आंकड़ा है कि 6981 मान्यता-प्राप्त स्टार्ट अप व्यवसायों में से केवल 109 को सरकारी सहायता या वित्तीय मदद मिल सकी। विकल्प थे। एक साहसिक कदम यह होता कि पेट्रोल और डीजल पर करों में कटौती की जाती। इससे निजी खपत को बढ़ावा मिलता। करों में कटौती से लागत में बचत होती, निर्यातक अपने उत्पादों की प्रतिस्पर्धी-कीमत रख पाते और इससे निर्यात को बढ़ावा मिलता। दोनों बातों का उद्योग को लाभ मिलता: अधिक क्षमता उपयोग, उत्पादकता में वृद्धि और अधिक रोजगार। वैकल्पिक रास्ते या तो तलाशे नहीं गए या छोड़ दिए गए। क्यों? मेरा खयाल है कि सामूहिक सोच व सामूहिक निर्णय-प्रक्रिया के अभाव के कारण ऐसा हुआ। जब सफेद घोड़े पर सवार होकर एक व्यक्ति घूम-घूम कर यह दावा करता है कि देश की सारी समस्याओं का हल उसके पास है, और किसी की सलाह या असहमति सुनना उसे गवारा नहीं है, तो परिणाम यही होगा। सरकारी खर्चों से आर्थिक वृद्धि का रास्ता गुजरात मॉडल का था। बेशक वह मॉडल कुछ देशों में परिणामकारी रहा, जब वहां मंदी थी। लेकिन मई 2014 में भारत में मंदी के हालात नहीं थे। खुद सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, 2013-14 में आर्थिक वृद्धि दर 6.4 फीसद थी। वृद्धि दर को तेज करने का एक शानदार मौका गंवा दिया गया।
कोई अन्य चारा नहीं
पिछले चार साल का अनुभव यह है कि गुजरात मॉडल कारगर साबित नहीं हुआ। दूसरे साल के अंत में, सरकार को रंग-ढंग बदलना चाहिए था। पर उसने ऐसा नहीं किया। समस्या तब और बढ़ गई जब 1 जुलाई 2017 को जीएसटी लागू हुआ। सलाह को दरकिनाकर कर, सरकार ने जीएसटी की ऊंची और अनेक दरें तय कर दीं। इससे उद्योग खासकर सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों के सामने जीवन-मरण की स्थिति पैदा हो गई। नोटबंदी और दोषपूर्ण जीएसटी की दोहरी मार ने निवेशकों के आत्मविश्वास को कुचल कर रख दिया।पेट्रोल और डीजल पर भारी करों का बोझ जनता उठाती है। लोग इसे चुपचाप सहन करते हैं- उनके पास इसके सिवा चारा भी क्या है?- पर वे राजी-खुशी से इसे सहन नहीं करते। दोपहिया, कार, ऑटो, टैक्सी, ट्रैक्टर और व्यावसायिक ट्रकों के मालिकों से पूछिए, हर बार जब वे अपने वाहन में र्इंधन भराते हैं, केंद्र सरकार को कोसते हैं। जब पिछले सप्ताह पेट्रोल और डीजल की कीमतें रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंच गर्इं, विरोध की आवाजें और तेज हुर्इं। पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के तहत लाने की मांग जोर पकड़ रही है। अब जब सरकार अपने कार्यकाल के आखिरी साल में प्रवेश कर रही है, उसके पास बहुत सीमित विकल्प हैं। राजकोषीय गुंजाइश काफी सिकुड़ चुकी है। सरकार ‘वसूलो और खर्चो’ की रणनीति को बड़ी शिद्दत से अपनाए हुए है और आखिरी साल में इस रणनीति से विमुख होना उसके लिए मुश्किल होगा। अब जब कच्चे तेल की कीमतें चढ़ रही हैं, तो सरकार के हाथ-पांव फूले हुए हैं, उसे सूझ नहीं रहा कि वह क्या करे। लिहाजा, संकेत यही हैं कि औसत उपभोक्ता को भारी करों और ऊंची कीमतों का बोझ उठाना होगा। इसे कोसिए और भुगतिए।
वर्ष केंद्र सरकार राज्य सरकारें
रु.प्रति ली. रु.प्रति ली. कुल योगदान रु. प्रति ली. रु. प्रति ली. कुल योगदान
पेट्रोल डीजल (रु. करोड़ में) पेट्रोल डीजल (रु. करोड़ में)
2013-14 10.38 4.52 152900 11.90 6.41 152460
2014-15 18.14 10.91 172066 11.05 6.06 160554
2015-16 19.56 11.16 258443 12.14 6.79 160209
2016-17 21.99 17.83 334534 13.95 7.99 189770
2017-18 20.06 15.92 230807 14.07 8.53 150996
(अप्रैल-दिसं. 17) (अप्रैल-दिसं. 17)