अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर मद्रास हाई कोर्ट का फैसला तमिल लेखक मुरुगन के संदर्भ में आया है। यह फैसला ऐतिहासिक कहा जा रहा है और केवल मुरुगन के पक्ष में नहीं, समस्त सर्जना के पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ने वाला है। यह शुभ है कि कोर्ट ने तमाम कानूनी दांव-पेंचों को दरकिनार कर एक ऐसा फैसला दिया और मुरुगन को पुनर्जीवित करने को कह कर सारे रचनाकारों को जीवित होने का बल दे दिया। इसका स्वागत करना ठीक है, पर इसी के साथ उन सामाजिक दबावों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो स्त्री रचनाकार के संदर्भ में लागू रहते हैं। उनकी पूर्ण मृत्यु और धीमी मृत्यु दोनों को कहीं जगह नहीं मिलती!  कहा जाता है कि रचनाकार को अपनी डेस्क पर एकदम अकेला होना चाहिए, किसी भी व्यक्ति, संबंध या रिश्तों-नातों का प्रवेश वहां वर्जित है, पर इसे स्त्री लेखन के संदर्भ में देखें तो इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि हिंदी के स्त्री लेखन का बहुलांश, बेहद दबावों का शिकार रहा है। बहुत कम लेखिकाएं इस दबाव से लिखते समय अपने को मुक्त रखने में सफल हो पाई हैं। जहां से कथा में स्त्री का हस्तक्षेप शुरू होता है, वहां की उलझनें और अंतर्विरोध उस खास समय की उलझनें और अंतर्विरोध भी हैं, पर आज भी स्थिति कोई बहुत बदली हुई तस्वीर नहीं बनाती। इसके लिए स्त्री को अतिरिक्त सजगता और अतिरिक्त सहजता के अतिरिक्त दबाव भी उठाने पड़ते हैं। एक और आसान तरीका उन्हें थमाया गया है, वह है, ‘फार्मूलाबाजी’। फर्मूला एक सबसे आसान उपलब्ध विकल्प है, जिसे पकड़ कर कुछ कहते हुए आसानी से बचा जा सकता है।

जब बचना ही था तो लिखने की यह चुनौतीभरी राह चुनने की क्या गरज थी? ‘किसने कहा था कि आइए कविता लिखिए, सुकवि की मुश्किल, सुकवि की मुश्किल’ क्या ये पंक्तियां याद नहीं आतीं! तो किसने कहा था कि आइए, अपना सिर तलवार पर धर दीजिए। लेकिन प्रतिरोध के विकल्प की ऐसी कमी, ऐसी अनुपलब्धता है कि स्त्री के लिए प्राय: ‘कहना’ ही एकमात्र विकल्प बचता है। ‘कहना’ स्त्री के लिए एक ऐसा आउटलेट है, जहां वह कुछ मुक्त होती है। शायद भगवान की शरण में बैठ कर घंटों पूजा करने और भगवान से झगड़ा करने के अलावा यही वह जगह है, जहां कुछ बातें थोड़ा मन लायक कही जा सकती हैं, हालांकि इसके खतरे बड़े हैं और हमारी वर्तमान सामाजिक संरचना के भीतर भी एक शादीशुदा पारिवारिक स्त्री के लिए इसे झेलना जोखिमभरा है। इसलिए ज्यादातर इस जोखिम से अपने को यथासंभव बचाते हुए कुछ बदल डालने या कुछ कर गुजरने वाले चरित्रों की बात करती हैं। कई बार कल्पना के रंग इतने गाढ़े होते चले जाते हैं कि उनमें यथार्थ के रंग भरना मुश्किल हो उठता है। यह मानसिक दबाव इतनी बारीकी से अपना काम करता है कि कई बार स्त्रियां इससे इनकार भी करती मिलती हैं, पर अंतत: हकीकत को रचना में छिपाया जाना आसान भी नहीं बना रहता।
इन दबावों का जाल समाज ने इस तरह बुना है कि स्त्री का अपना कुछ भी निज का नहीं रह जाता, न कागजों का पुलिंदा, न मोबाइल, न लैपटाप, न कैमरा, न इंटरनेट। कहीं न कहीं से हर डिवाइस की पड़ताल संभव बनी रहती है। ‘जाइए, आप कहां जाएंगे?’ वाला मिजाज हर तरफ पसरा हुआ, फिर किधर बचती है वह डेस्क, जिस पर स्त्री को अकेला होना है, सिर्फ और सिर्फ अपने साथ, अपने शब्दों के साथ, अपने दिमाग के साथ, अपने भाव के साथ, अपनी समझ और अपने गुस्से के साथ भी। दूसरी तरफ लिखने वालों की दुनिया के अपने द्वंद्व हैं, जो प्रोत्साहन के नाम पर हतोत्साहित ही ज्यादा करते हैं। यहां उस अमेरिकी आलोचक सुसैन सोंटांग को याद करने का मन करता है, जो लेखन के तंत्र की पहचान की बात उठाती हैं। यहां थोड़ी-सी लेखिकाओं को छोड़ कर ज्यादातर के मुंह में पितृसत्ता अपने विचार भरती है और अपनी तरह का स्त्री लेखन पैदा करवाती है। स्त्रियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के सौतिया डाह जैसे पुराने जुमले को चरितार्थ करती है और बताती है कि ‘मोहे न नारि नारि के रूपा’ वाला उनका बनाया कांस्पेट आज भी कितना सफल है, फिर अपनी जरूरत मुताबिक जब मर्जी इस खेल को पलट कर संदेश देती है कि कठपुतली के धागे उसी के हाथ में हैं। यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। यानी आपकी मर्जी कहां है?
क्या ऐसा लेखन कालजयी हो सकेगा? क्या वह अपनी नजर से जिस दुनिया को लिखने चली थी, वह लिखी जा सकेगी? तो क्या हमें एक बार फिर वर्जीनिया वुल्फ से यह नहीं पूछना पड़ेगा कि आखिर क्यों उन्हें हजारों औरतों के उपन्यास छोटे दागदार सेबों की तरह दिखाई दिए। क्यों उन्हें केवल जेन आस्टेन और एमिली बोंटे ही दिखाई पड़ीं, जो सच्चे और खरेपन से जो कुछ देख रही थीं, वह लिख रही थीं! वर्जीनिया ने लिखा कि ‘लंदन की तमाम पुरानी किताबों की दुकानों में औरतों के जो उपन्यास बिखरे पड़े रहते हैं, वे किसी बगीचे में छोटे दागदार सेबों की तरह दिखाई देते हैं। उनके बीचों बीच की गड़बड़ी ने उन्हें सड़ा डाला है। दूसरों की राय के अनुपालन में लेखिकाओं ने अपने मूल्य बदल डाले।… केवल जेन आंस्टेन और एमिली बोंटे ऐसा कर सकीं। उन्होंने औरतों की तरह लिखा, मर्दों की तरह नहीं। उस समय जिन हजारों औरतों ने उपन्यास लिखे, उन सबमें केवल ये ही शाश्वत उपदेशकों की चेतावनियों ‘यह लिखो, वह लिखो’ की पूरी तरह उपेक्षा कर सकीं।’
औरतों की तरह लिखना क्या है? यानी अपनी निगाह से दुनिया को देखना, न कि बताई गई, तय कर दी गई, थमाई गई दृष्टि से देखना। स्त्रियों ने लेखन की दुनिया चुनी कि अपनी बेचैनियों को स्वर दे सकें, अपने अनुभवों को साझा कर सकें, जिस तरह दुनिया उन्हें समझ आई है, उसे बता सकें, लेकिन भीतर आने पर फिर वही समाज, वैसी ही घेराबंदी के लिए तैयार खड़ा मिलता है। समझौते की नीतियां उन्हें कहीं का नहीं रहने देतीं! मद्रास हाई कोर्ट मुरुगन को जीवित किए जाने की बात करता है, पर किसी की चिंता में यह नहीं कि ये जो रोज मारी जा रही हैं, धीमी मृत्यु की शिकार हो रही हैं, उन्हें कैसे जीवन मिलेगा?
कोर्ट के फैसले में यह भी कहा गया कि ‘लेखक को वह करने दें जो वह अच्छे से कर सकते हैं। उन्हें लिखने दें।’ यह एक वजनी वाक्य है, जो निश्चित ही लेखक के पक्ष को मजबूत करता है। ध्यान रहे कि ‘लेखक’ एक पद है, जिसके भीतर स्त्री और अन्य हाशिए का समाज मौजूद माना जाना चाहिए। इसलिए स्त्री भी जब लिखना चुनती है, तब क्या उसे दबावों को अस्वीकार करते हुए वही नहीं करना चाहिए, जो वह अच्छे से कर सकती है, यानी लेखन। आखिर यह माना ही जाता है कि जीवन का कोई भी अनुभव ऐसा नहीं, जिसे नहीं कहा जाना चाहिए।’ रचना का यह सत्य, स्त्री रचनाकार होने से बदलता नहीं है। इसलिए स्त्री को भी, अगर अपने को जीवित पाना है तो अपनी लेखन डेस्क पर बैठते ही सामाजिक दबावों से बेपरवाह हो जाना होगा। यह उतना ही जरूरी है, जितना कि अपनी धीमी मृत्यु या कई बार स्पीडी मृत्यु की पहचान करना।
अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर मद्रास हाई कोर्ट का फैसला तमिल लेखक मुरुगन के संदर्भ में आया है। यह फैसला ऐतिहासिक कहा जा रहा है और केवल मुरुगन के पक्ष में नहीं, समस्त सर्जना के पक्ष में खड़ा दिखाई पड़ने वाला है। यह शुभ है कि कोर्ट ने तमाम कानूनी दांव-पेंचों को दरकिनार कर एक ऐसा फैसला दिया और मुरुगन को पुनर्जीवित करने को कह कर सारे रचनाकारों को जीवित होने का बल दे दिया। इसका स्वागत करना ठीक है, पर इसी के साथ उन सामाजिक दबावों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जो स्त्री रचनाकार के संदर्भ में लागू रहते हैं। उनकी पूर्ण मृत्यु और धीमी मृत्यु दोनों को कहीं जगह नहीं मिलती!
कहा जाता है कि रचनाकार को अपनी डेस्क पर एकदम अकेला होना चाहिए, किसी भी व्यक्ति, संबंध या रिश्तों-नातों का प्रवेश वहां वर्जित है, पर इसे स्त्री लेखन के संदर्भ में देखें तो इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि हिंदी के स्त्री लेखन का बहुलांश, बेहद दबावों का शिकार रहा है। बहुत कम लेखिकाएं इस दबाव से लिखते समय अपने को मुक्त रखने में सफल हो पाई हैं। जहां से कथा में स्त्री का हस्तक्षेप शुरू होता है, वहां की उलझनें और अंतर्विरोध उस खास समय की उलझनें और अंतर्विरोध भी हैं, पर आज भी स्थिति कोई बहुत बदली हुई तस्वीर नहीं बनाती। इसके लिए स्त्री को अतिरिक्त सजगता और अतिरिक्त सहजता के अतिरिक्त दबाव भी उठाने पड़ते हैं। एक और आसान तरीका उन्हें थमाया गया है, वह है, ‘फार्मूलाबाजी’। फर्मूला एक सबसे आसान उपलब्ध विकल्प है, जिसे पकड़ कर कुछ कहते हुए आसानी से बचा जा सकता है। जब बचना ही था तो लिखने की यह चुनौतीभरी राह चुनने की क्या गरज थी? ‘किसने कहा था कि आइए कविता लिखिए, सुकवि की मुश्किल, सुकवि की मुश्किल’ क्या ये पंक्तियां याद नहीं आतीं! तो किसने कहा था कि आइए, अपना सिर तलवार पर धर दीजिए। लेकिन प्रतिरोध के विकल्प की ऐसी कमी, ऐसी अनुपलब्धता है कि स्त्री के लिए प्राय: ‘कहना’ ही एकमात्र विकल्प बचता है। ‘कहना’ स्त्री के लिए एक ऐसा आउटलेट है, जहां वह कुछ मुक्त होती है। शायद भगवान की शरण में बैठ कर घंटों पूजा करने और भगवान से झगड़ा करने के अलावा यही वह जगह है, जहां कुछ बातें थोड़ा मन लायक कही जा सकती हैं, हालांकि इसके खतरे बड़े हैं और हमारी वर्तमान सामाजिक संरचना के भीतर भी एक शादीशुदा पारिवारिक स्त्री के लिए इसे झेलना जोखिमभरा है। इसलिए ज्यादातर इस जोखिम से अपने को यथासंभव बचाते हुए कुछ बदल डालने या कुछ कर गुजरने वाले चरित्रों की बात करती हैं। कई बार कल्पना के रंग इतने गाढ़े होते चले जाते हैं कि उनमें यथार्थ के रंग भरना मुश्किल हो उठता है। यह मानसिक दबाव इतनी बारीकी से अपना काम करता है कि कई बार स्त्रियां इससे इनकार भी करती मिलती हैं, पर अंतत: हकीकत को रचना में छिपाया जाना आसान भी नहीं बना रहता।
इन दबावों का जाल समाज ने इस तरह बुना है कि स्त्री का अपना कुछ भी निज का नहीं रह जाता, न कागजों का पुलिंदा, न मोबाइल, न लैपटाप, न कैमरा, न इंटरनेट। कहीं न कहीं से हर डिवाइस की पड़ताल संभव बनी रहती है। ‘जाइए, आप कहां जाएंगे?’ वाला मिजाज हर तरफ पसरा हुआ, फिर किधर बचती है वह डेस्क, जिस पर स्त्री को अकेला होना है, सिर्फ और सिर्फ अपने साथ, अपने शब्दों के साथ, अपने दिमाग के साथ, अपने भाव के साथ, अपनी समझ और अपने गुस्से के साथ भी। दूसरी तरफ लिखने वालों की दुनिया के अपने द्वंद्व हैं, जो प्रोत्साहन के नाम पर हतोत्साहित ही ज्यादा करते हैं। यहां उस अमेरिकी आलोचक सुसैन सोंटांग को याद करने का मन करता है, जो लेखन के तंत्र की पहचान की बात उठाती हैं। यहां थोड़ी-सी लेखिकाओं को छोड़ कर ज्यादातर के मुंह में पितृसत्ता अपने विचार भरती है और अपनी तरह का स्त्री लेखन पैदा करवाती है। स्त्रियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर के सौतिया डाह जैसे पुराने जुमले को चरितार्थ करती है और बताती है कि ‘मोहे न नारि नारि के रूपा’ वाला उनका बनाया कांस्पेट आज भी कितना सफल है, फिर अपनी जरूरत मुताबिक जब मर्जी इस खेल को पलट कर संदेश देती है कि कठपुतली के धागे उसी के हाथ में हैं। यानी चित भी मेरी पट भी मेरी। यानी आपकी मर्जी कहां है?
क्या ऐसा लेखन कालजयी हो सकेगा? क्या वह अपनी नजर से जिस दुनिया को लिखने चली थी, वह लिखी जा सकेगी? तो क्या हमें एक बार फिर वर्जीनिया वुल्फ से यह नहीं पूछना पड़ेगा कि आखिर क्यों उन्हें हजारों औरतों के उपन्यास छोटे दागदार सेबों की तरह दिखाई दिए। क्यों उन्हें केवल जेन आस्टेन और एमिली बोंटे ही दिखाई पड़ीं, जो सच्चे और खरेपन से जो कुछ देख रही थीं, वह लिख रही थीं! वर्जीनिया ने लिखा कि ‘लंदन की तमाम पुरानी किताबों की दुकानों में औरतों के जो उपन्यास बिखरे पड़े रहते हैं, वे किसी बगीचे में छोटे दागदार सेबों की तरह दिखाई देते हैं। उनके बीचों बीच की गड़बड़ी ने उन्हें सड़ा डाला है। दूसरों की राय के अनुपालन में लेखिकाओं ने अपने मूल्य बदल डाले।… केवल जेन आंस्टेन और एमिली बोंटे ऐसा कर सकीं। उन्होंने औरतों की तरह लिखा, मर्दों की तरह नहीं। उस समय जिन हजारों औरतों ने उपन्यास लिखे, उन सबमें केवल ये ही शाश्वत उपदेशकों की चेतावनियों ‘यह लिखो, वह लिखो’ की पूरी तरह उपेक्षा कर सकीं।’
औरतों की तरह लिखना क्या है? यानी अपनी निगाह से दुनिया को देखना, न कि बताई गई, तय कर दी गई, थमाई गई दृष्टि से देखना। स्त्रियों ने लेखन की दुनिया चुनी कि अपनी बेचैनियों को स्वर दे सकें, अपने अनुभवों को साझा कर सकें, जिस तरह दुनिया उन्हें समझ आई है, उसे बता सकें, लेकिन भीतर आने पर फिर वही समाज, वैसी ही घेराबंदी के लिए तैयार खड़ा मिलता है। समझौते की नीतियां उन्हें कहीं का नहीं रहने देतीं! मद्रास हाई कोर्ट मुरुगन को जीवित किए जाने की बात करता है, पर किसी की चिंता में यह नहीं कि ये जो रोज मारी जा रही हैं, धीमी मृत्यु की शिकार हो रही हैं, उन्हें कैसे जीवन मिलेगा?
कोर्ट के फैसले में यह भी कहा गया कि ‘लेखक को वह करने दें जो वह अच्छे से कर सकते हैं। उन्हें लिखने दें।’ यह एक वजनी वाक्य है, जो निश्चित ही लेखक के पक्ष को मजबूत करता है। ध्यान रहे कि ‘लेखक’ एक पद है, जिसके भीतर स्त्री और अन्य हाशिए का समाज मौजूद माना जाना चाहिए। इसलिए स्त्री भी जब लिखना चुनती है, तब क्या उसे दबावों को अस्वीकार करते हुए वही नहीं करना चाहिए, जो वह अच्छे से कर सकती है, यानी लेखन। आखिर यह माना ही जाता है कि जीवन का कोई भी अनुभव ऐसा नहीं, जिसे नहीं कहा जाना चाहिए।’ रचना का यह सत्य, स्त्री रचनाकार होने से बदलता नहीं है। इसलिए स्त्री को भी, अगर अपने को जीवित पाना है तो अपनी लेखन डेस्क पर बैठते ही सामाजिक दबावों से बेपरवाह हो जाना होगा। यह उतना ही जरूरी है, जितना कि अपनी धीमी मृत्यु या कई बार स्पीडी मृत्यु की पहचान करना।