चुनाव में हिस्सा लेने वाले आम नागरिकों या चुनाव प्रक्रिया संपन्न कराने की कोशिश करने वाले अधिकारियों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं पर काबू न पा सकना प्रशासन की कमजोरी को साबित करता है। नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली हर चुनाव में स्थानीय लोगों से मतदान के बहिष्कार का आह्वान करते हैं। इसके लिए वे लोगों पर दबाव भी बनाए रखते हैं। इसी तरह उनकी कोशिश होती है कि चुनाव प्रक्रिया में हिस्सा लेने वाले कर्मचारियों-अधिकारियों को भी डरा-धमका कर उनके कर्तव्य निर्वाह में बाधा डालें। इस तरह वे व्यवस्था पर अपना दबाव बढ़ाने का प्रयास करते हैं। इसी प्रयास के तहत ओड़ीशा के कंधमाल जिले में मतदान की पूर्व संध्या पर माओवादियों ने एक महिला निर्वाचन अधिकारी की गोली मार कर हत्या कर दी। इसके अलावा एक चुनावी वाहन को आग लगा दी। दोनों घटनाएं तब हुर्इं जब निर्वाचन कर्मी अपने मतदान केंद्रों की तरफ जा रहे थे। कंधमाल जिला माओवाद प्रभावित है। वहां नक्सलियों ने स्थानीय लोगों से चुनाव में हिस्सा न लेने का आह्वान किया था। लिहाजा, स्थानीय प्रशासन और मतदान संपन्न कराने के लिए तैनात सुरक्षा बलों को ऐसी घटना की आशंका पहले से रही होगी। फिर भी हैरानी की बात है कि नक्सली मंसूबों पर काबू पाने में वे विफल हुए।
नक्सल प्रभावित इलाकों में चुनाव संपन्न कराना अब भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। यह ठीक है कि इन इलाकों में सघन वन क्षेत्र हैं, मतदान केंद्रों पर पहुंचने के लिए आमतौर पर निर्वाचन कर्मियों को पैदल ही उनसे होकर जाना पड़ता है। वहां अंदाजा लगाना कठिन है कि कहां माओवादी घात लगाए बैठे होंगे। पर सूचना तकनीक के इस जमाने में सुरक्षा तंत्र को यह भनक न लग पाना कि माओवादी किस तरह की और कितनी बड़ी साजिश रच रहे हैं, एक प्रकार से उसकी मुस्तैदी और प्रशिक्षण पर भी सवाल खड़े करता है। निर्वाचन आयोग का प्रयास होता है कि देश का हर नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करे। इसके लिए जागरूकता अभियान, प्रचार-प्रसार पर खासा खर्च किया जाता है। इसी तरह हर मतदान केंद्र तक कर्मियों की सुरक्षित पहुंच के लिए पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं। दुर्गम जगहों पर हेलीकॉप्टर का भी इंतजाम किया जाता है। कंधमाल जैसे इलाकों में जहां भी माओवादी इस कदर ताकतवर हैं कि वे सुरक्षा इंतजामों को चुनौती दे सकते हैं, तो वहां निर्वाचन कर्मियों को जान पर खेल कर मतदान कराने भेजने के बजाय सुरक्षित विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए।
माओवाद या दूसरी चरमपंथी गतिविधियों से प्रभावित इलाकों में मतदान संपन्न कराना निर्वाचन आयोग के समक्ष बड़ी चुनौती है। वहां मतदान न हो पाने से न सिर्फ एक बड़ी आबादी अपने मताधिकार के प्रयोग से वंचित रह जाती है, बल्कि चरमपंथी संगठनों का मनोबल भी बढ़ता है। फिर चुनाव ड्यूटी के मामले में बहुत सारे कर्मचारी किसी न किसी बहाने कन्नी काटते देखे जाते हैं। ऐसे में कंधमाल जैसी घटना होती है, तो दूसरे कर्मियों का मनोबल टूटता है। इसलिए निर्वाचन आयोग पर इसका दारोमदार आता है कि कैसे निर्वाचन कर्मियों को मतदान केंद्रों तक सुरक्षित पहुंचाए और स्थानीय लोगों को चुनाव प्रक्रिया में सहयोग करने के लिए प्रोत्साहित कर सके। माओवाद प्रभावित इलाकों में लोगों के मतदान के प्रति उत्साहित न होने का एक कारण माओवादियों की धमकी तो है ही, सुरक्षा बलों का उनके साथ तालमेल न बिठा पाना भी है। इसलिए इन तमाम पहलुओं पर गंभीरता से विचार की जरूरत है।