मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला तो भारी बरसात की वजह से ऐसा दृश्य था जैसे बाढ़ का पानी शहर में घुस गया हो। सब तरफ घुटनों भर पानी दिख रहा था। एक भी ई-रिक्शा नहीं दिख रहा था कि मैं घर की ओर निकलूं। कोने पर एक साइकिल रिक्शा वाला भीगा हुआ खड़ा था। कोई चारा नहीं देख कर मैंने उसे इशारा किया तो वह मेरे नजदीक आया। ई-रिक्शा के मुकाबले कुछ पैसे ज्यादा लगे, लेकिन मैं बिना अपने जूते भिगोए घर पहुंच गया।

दरअसल, हमारे शहरों में सार्वजनिक परिवहन के कई स्तर हैं। दिल्ली में अक्सर हमें एक से दूसरे स्थान तक पहुंचने के लिए दूरी और रास्ते के हिसाब से यातायात के अलग-अलग साधनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। साइकिल रिक्शा भी इन्हीं में से एक है। यह शहरों में अनेक जगहों के अंतिम छोर पर आने-जाने के लिए यातायात के साधन के तौर पर हमारे लिए मौजूद रहता है। अपने कठोर मानवीय श्रम के बूते रिक्शा चालक सवारियों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाता है। बदलते समय के साथ आने वाली नई चीजें पुरानी चीजों को स्थानांतरित कर देती हैं या उनकी मांग में कमी ला देती हैं। सड़क पर बैट्री-चालित या ई-रिक्शा के आ जाने से साइकिल रिक्शा चालकों के सामने वजूद का संकट पैदा हो गया है, क्योंकि ई-रिक्शा चलने से ज्यादातर सवारियां अब इनकी तरफ अपना रुख करती हैं।

साल के अधिकांश महीनों में तकनीक से घूमता पहिया इंसान की शारीरिक मेहनत से चलने वाले पहिए को पछाड़ देता है। लेकिन बारिश के महीनों में नजारा बदला हुआ होता है। पानी की निकासी नहीं होने के कारण बारिश में अक्सर सड़कें पानी में डूबी होती हैं। इसी वजह से ई-रिक्शा चालक अपने वाहन को सड़क पर नहीं उतारते हैं, क्योंकि उसकी बैटरी के पानी में डूब जाने से वह बंद हो जाता है और उसके खराब होने का डर भी रहता है। इसके बाद लोगों के पास विकल्प के तौर पर साइकिल रिक्शा ही मौजूद रहता है। साइकिल रिक्शा चालक अपनी कठोर मेहनत के दम पर सवारियों को निर्धारित स्थान पर पहुंचाता है। ऊबड़-खाबड़ सड़क और कहीं-कहीं गड्ढे होने के चलते उसे गंदे पानी में भी उतर कर रिक्शे को खींचना पड़ता है। इन सबके चलते वे कुछ ज्यादा किराया लेते हैं जो मेरी नजर में जायज है। कुछ लोग उनकी मेहनत को देखते हुए सहजता से पैसे दे देते हैं, लेकिन बहुत-सारे ऐसे लोग भी हैं जो किराए को लेकर उनसे उलझते हैं, लेकिन कोई विकल्प नहीं होने के चलते कड़वे लहजे में कुछ बोलते हुए आखिरकार किराया देते हैं। वे इसे लूट का नाम देते हैं। क्या रिक्शा चालकों को इस तरह लांछित करना जायज है? क्या लोगों को ऐसा बर्ताव करने से पहले अपने गिरेबान में झांक कर यह नहीं देखना चाहिए कि उन्होंने सड़क पर अपने कठोर शारीरिक श्रम से रिक्शा खींचने के उनके रोजगार को बरकरार रखने में अपनी कौन-सी भूमिका निभाई है? अगर आज भी रिक्शाचालक अन्य किसी काम के न होने के चलते ऐसे मौसम में भी रिक्शा चलाने को मजबूर हैं, तो यह लोगों से ज्यादा उसकी मजबूरी है। इसी वजह से लोगों को सड़क पर फैले गंदे पानी में नहीं उतरना पड़ता।

सड़कों की खस्ता हालत के चलते इन लोगों को रोजी-रोटी जुटाने के लिए और भी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों को चाहिए कि वे मानवीय श्रम की कद्र करते हुए कम से कम समतल सड़कों का निर्माण करा दें, जिससे इन्हें सवारियों को लाने और ले जाने में थोड़ी आसानी हो जाए। फिल्म ‘बाजार’ में अभिनेता फारुख शेख रिक्शा चलाते हैं। लेकिन फिल्म में दिखाई गई जैसी सड़कों पर वे रिक्शा चलाते हैं, वह अपनी गरिमा को बचाए रख कर मानवीय श्रम से आजीविका कमाने का एक उदाहरण है, लेकिन फिल्मी परदे पर है। जैसी स्थिति बनाई जा रही है, उसमें हकीकत में शायद कभी रिक्शाचालकों को यह हक हासिल न हो सके।

रिक्शा चलाने वाले अधिकतर वैसे लोग हैं जो अपना घर-बार छोड़ कर काम की तलाश में शहरों-कस्बों में आते हैं। एक हकीकत यह भी है कि महानगरों में ऐसे इंतजाम किए जा रहे हैं, नियम बनाए जा रहे हैं कि साइकिल रिक्शा के लिए गुंजाइश भी नहीं बचे। कुछ समय पहले नोएडा में सड़कों पर मौजूद रिक्शों को प्रशासन केवल जब्त नहीं कर रहा था, बल्कि उन्हें जेसीबी मशीन से तोड़ता भी था। यह किस तरह की सरकारी संवेदनशीलता है? हालांकि लोगों को रोजगार मुहैया कराना और उनके रोजगार के साधनों को बचाए रखना सरकार का भी दायित्व है। अगर किसी कारणवश रोजगार के साधन पर संकट आता है तो विकल्प के तौर पर सरकार को इन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए कोई दूसरा साधन उपलब्ध कराना चाहिए। लेकिन सरकारें कभी भी अपने एजेंडे में हाशिये के इन लोगों के लिए कुछ नहीं सोचतीं।