पिछले कुछ समय से तेजी से सोशल मीडिया और संवाद के दूसरे माध्यमों का प्रसार हुआ है। वाट्सएप, फेसबुक या वाइबर जैसे अनेक मंचों पर लोग सामान्य बातचीत से लेकर किसी खास मुद्दे पर आपस में ग्रुप बना कर बहस या सूचनाओं का आदान-प्रदान भी करते हैं। इस तरह की बातचीत का स्वरूप निहायत निजी होने से लेकर सामाजिक या राजनीतिक भी हो सकता है।
संभव है कि वाट्सएप जैसी मैसेजिंग सेवाओं पर कुछ लोग ऐसी अवांछित बातें भी करते हों जो सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव के लिहाज से संवेदनशील हों। लेकिन सिर्फ इस आधार पर सोशल मीडिया पर सभी मैसेजिंग सेवाओं को सरकारी निगरानी के दायरे में ले आने के सरकार के इरादे के मद्देनजर स्वाभाविक ही निजता के अधिकार का सवाल उठा है, और लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन को लेकर चिंता जताई गई है।
गौरतलब है कि सोमवार को इलेक्ट्रॉनिक ऐंड इन्फॉरमेशन टेक्नॉलॉजी विभाग ने नेशनल इन्क्रिप्शन नीति से जुड़ा मसविदा अपनी वेबसाइट पर डाल दिया, जिसमें वाट्सएप सहित वाइबर, स्काइप, वीचैट, जीमेल और गूगल हैंगआउट जैसे आपसी संवाद के इंटरनेट मंचों पर एक तरह से सरकारी निगरानी की बात कही गई थी। इसके तहत इन मैसेजिंग सेवाओं का उपयोग करते हुए व्यक्ति किसी भी तरह की बातचीत का ब्योरा अगले नब्बे दिनों तक डिलीट नहीं कर सकता; पुलिस उसका ब्योरा मांग सकती है। अगर ये मैसेज प्लेन टेक्स्ट में सुरक्षित नहीं रखे गए तो यह कानून के खिलाफ होगा और इस आरोप में व्यक्ति को जेल भी भेजा सकता है।
जाहिर है, यह लोगों की हर तरह की बातचीत को संदेह और निगरानी के घेरे में लाकर प्रकारांतर से अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना ही हुआ। इसमें मोबाइल या कंप्यूटर में मौजूद जगह में बातचीत को स्टोर करके रखने की समस्या से इतर व्यक्ति की निजता जैसे मसलों पर गौर करना जरूरी नहीं समझा गया। यही वजह है कि सरकार की इस मंशा पर लोगों के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई और जब मामले ने तूल पकड़ लिया तब केंद्रीय संचारमंत्री रविशंकर ने नेशनल इन्क्रिप्शन पॉलिसी के मसविदे को वापस लेने की घोषणा कर दी। सफाई दी कि उन्होंने जब खुद इसको पढ़ा तो लगा कि इसमें कुछ शब्दों से अनावश्यक आशंकाएं पैदा होती हैं।
सवाल है कि किसी नीतिगत मसले पर मसविदा जारी करने से पहले उसकी संवेदनशीलता की जांच-परख का यह कौन-सा स्तर है कि सामने आते ही देश भर में इसकी चौतरफा निंदा होने लगी? देश की सुरक्षा पर कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। लेकिन यह सच है कि आज भी उस तरह की किसी स्थिति में अनिवार्य होने पर पुलिस या जांच एजेंसियां जरूरी आंकड़े या ब्योरे संबंधित कंपनियों के जरिए निकलवाती ही हैं।
ऐसे में बाकायदा कानून बना कर सभी लोगों को एक शक के दायरे में खड़ा कर देना और निजता के साथ-साथ किसी बातचीत को सुरक्षित रखने या हटाने के अधिकार का हनन बुनियादी रूप से लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है। एक ओर प्रधानमंत्री ‘डिजिटल इंडिया’ का नारा देते हैं और दूसरी ओर इंटरनेट का उपयोग सरकारी एजेंसियों की निगरानी की जद में लाए जाने का अंदेशा पैदा हुआ है। वह कैसा ‘डिजिटल इंडिया’ होगा, जिसमें कोई व्यक्ति अपने मोबाइल या कंप्यूटर के जरिए इंटरनेट पर किसी से बातचीत करते हुए सरकार की निगरानी में होगा!
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