जनतंत्र में लोकसेवकों की जिम्मेदारी सबसे अहम मानी जाती है। इसलिए कि यही विधायिका के निर्णयों को क्रियान्वित करते, योजनाओं को उनके लक्ष्य तक पहुंचाने में मदद और सार्वजनिक धन का समुचित उपयोग सुनिश्चित करते हैं। इसलिए लोकसेवा दिवस पर प्रधानमंत्री ने लोकसेवकों से अपील की कि वे राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका को विस्तार दें।

वे हर फैसले से पहले इन सवालों के बारे में जरूर सोचें कि सत्ता में बैठी राजनीतिक पार्टियां सरकारी धन का इस्तेमाल देश के विकास में कर रही हैं, अपने दल के विस्तार में या वोट बैंक बनाने के प्रयास में वे उसे लुटा रही हैं। जाहिर है, उनका इशारा उन सरकारों की तरफ था, जो मुफ्त की सेवाएं और सुविधाएं देकर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास करती देखी जाती हैं।

यह प्रवृत्ति पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ी है। अब चुनावों में हर राजनीतिक दल बिजली, पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं आदि मुफ्त में उपलब्ध कराने के बढ़-चढ़ कर दावे करता देखा जाता है। कई राज्यों में इस पर अमल भी हो रहा है। यह काम वे सरकारें भी कर रही हैं, जो खासे वित्तीय संकट से गुजर रही हैं। मगर सवाल है कि क्या प्रशासनिक अधिकारियों की सतर्कता से यह प्रवृत्ति वास्तव में रुक जाएगी।

सरकारी धन के दुरुपयोग की एक लंबी शृंखला है। उसमें अनाप-शनाप खर्चे भी शामिल हैं। अनेक बार रेखांकित किया जा चुका है कि राजनेताओं को दिखावे और तड़क-भड़क वाला जीवन जीने से परहेज करना चाहिए। उन्हें अपने खर्चों को सीमित करने पर ध्यान देना चाहिए। मगर चुनाव खर्च से लेकर निजी जीवन तक उनके खर्चे में कहीं भी कोई कमी नजर नहीं आती।

यही बात प्रशासनिक अधिकारियों के मामले में देखी जाती है। इस तरह सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों की सुविधाएं जुटाने पर खर्च हो जाता है। फिर लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा इसी मकसद से की जाती है कि लोग अगले चुनाव में भी उन्हें ही चुन कर सत्ता तक पहुंचाएंगे। हर चुनावी वर्ष में लुभावनी योजनाओं की झड़ी-सी लग जाती है।

इस मामले में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है। फिर तर्क दिए जाते हैं कि जन कल्याण के लिए योजनाएं शुरू करना या पुरानी योजनाओं को विस्तार देना, उनके मद में धन का आबंटन बढ़ाना एक कल्याणकारी सरकार का दायित्व है। ऐसे में प्रशासनिक अधिकारियों के लिए सत्ता पक्ष का हाथ रोकना आसान नहीं होता।

फिर सवाल लोकसेवकों यानी प्रशासनिक अधिकारियों की जवाबदेही का भी है। वे खुद कितने निष्ठावान रह गए हैं, इस पर प्रश्नचिह्न लगातार गाढ़ा ही होता गया है। छिपी बात नहीं है कि हर सत्ता पक्ष प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस का इस्तेमाल अपने मन मुताबिक करने का प्रयास करता है। इसीलिए जब भी सरकार बदलती है, तो बड़े पैमाने पर अधिकारियों के तबादले किए जाते हैं।

अगर कोई अधिकारी वास्तव में सरकार के कामकाज पर अंगुली उठाने का प्रयास करता है, तो तबादलों और मुकदमों के चक्र में ऐसा फंसाया जाता है कि वह अपना काम ठीक से कर ही नहीं पाता। ऐसे में प्रशासनिक अधिकारियों की सत्ता से करीबी बनाए रखने की प्रवृत्ति बनती गई है। वे महत्त्वपूर्ण और ‘कमाई’ वाले माने जाने वाले पदों पर पहुंचने के लिए प्रकट रूप से जोड़-तोड़ भी करते देखे जाते हैं। ऐसे में यह सवाल अनुत्तरित ही रह जाता है कि क्या वास्तव में प्रशासनिक अधिकारी अपने दायित्वों का निष्ठापूर्वक निर्वाह कर पाएंगे!