हाल में कानपुर में मुठभेड़ में मारे गए विकास दुबे ने अपने घर छापा मारने आए पुलिस बल पर हमला कर आठ पुलिसकर्मियों को मार डाला था। तब यह सवाल उठा था कि जिस अपराधी पर करीब पांच दर्जन अपराधों के मुकदमे चल रहे थे, वह जेल से बाहर कैसे था! अब विकास दुबे की मुठभेड़ में मौत के मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ठीक यही सवाल उठा कर उत्तर प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा किया है कि इतने सारे संगीन आपराधिक मुकदमे सिर पर दर्ज होने वाला व्यक्ति जमानत पर आखिर रिहा कैसे था कि उसने इतना बड़ा नुकसान कर दिया।

इस पर हैरानी जताते हुए अदालत ने साफ शब्दों में कहा कि यह संस्थान या व्यवस्था की नाकामी को दर्शाता है। यों इस समूचे मामले के सामने आने और काफी मशक्कत के बाद पकड़ में आए विकास दुबे के मुठभेड़ में मार डाले जाने के बाद यह सवाल सबके जेहन में था कि जो पुलिस किसी एक मामले में इतनी सक्रियता के साथ उसके खिलाफ कार्रवाई कर सकती है, उसने इतने लंबे समय से कई संगीन मामलों में लिप्त पाए जाने के बावजूद उसे खुला कैसे छोड़ा हुआ था।

दरअसल, यह एक जगजाहिर स्थिति रही है कि स्थानीय स्तर पर उभरे अपराधियों को कई बार पहले किसी एक नेता का संरक्षण मिलता है, फिर अपराध की दुनिया में ही कद बढ़ने के बाद वह अलग-अलग पार्टियों में प्रभावशाली पदों पर बैठे नेताओं तक अपनी पैठ बना लेता है। राजनीतिक शख्सियतों के बीच अपराधियों को जाने-अनजाने कई वजहों से मिलने वाली शह की वजह से ही विकास दुबे जैसा व्यक्ति अपराध की दुनिया में अपने पांव फैलाता रहता है और शासन-तंत्र में ऊंची पैठ का इस्तेमाल करके आजाद घूमता रहता है।

सवाल है कि आठ पुलिसकर्मियों के मारे जाने के बाद जागी सरकार और पुलिस को क्या इस बात की जानकारी नहीं थी कि विकास दुबे का आपराधिक इतिहास क्या रहा है! थाने में घुस कर किसी की हत्या करने से लेकर बेहद गंभीर प्रकृति के अपराधों सहित पैंसठ अन्य मुकदमे जिस व्यक्ति पर चल रहे हों, उसे लेकर सरकार और पुलिस इतने समय तक आंखें मूंदे रही तो इसके क्या कारण थे!

इसी अघोषित संरक्षण से बढ़े हौसले की वजह से उसने पुलिस-बल पर भी हमला करके बड़ा नुकसान पहुंचा दिया, तब जाकर पुलिस ने जो सख्ती दिखाई, अगर वह सक्रियता पहले दिखाई गई होती तो मुठभेड़ में मारे जाने के बजाय कानूनन उसे सजा के अंजाम तक पहुंचाया जा सकता था।

विडंबना यह है कि इस तरह की लापरवाही की वजह से समूचे राज्य, सरकार और संस्थान की जो बदनामी होती है, उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं, उसे ध्यान में रखना न नेताओं को जरूरी लगता है, न पुलिस महकमे को। अगर किसी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को राहत देने के लिए पुलिस पर कहीं से प्रत्यक्ष या परोक्ष दबाव डाला जाता है तो क्या पुलिस को कानून और संस्थान की गरिमा को बनाए रखना प्राथमिक दायित्व नहीं समझना चाहिए! किसी भी अदालत में जब इस तरह के मामले की सुनवाई होगी तब वैसे लोग शायद ही कठघरे में आ पाएं, जिन्होंने पर्दे के पीछे से अपराधियों को संरक्षण दिया होता है।

जवाब आखिरकार पुलिस को ही देना पड़ेगा कि जघन्य अपराधों के आरोपी के मामले को संबंधित अदालत में कैसे पेश किया गया कि उसे जमानत या आजाद रहने की छूट मिल गई! जरूरत इस बात की है कि ऐसे अपराधियों के खिलाफ सांस्थानिक स्तर पर सख्ती बरतते हुए उसके संरक्षकों को भी कठघरे में खड़ा किया जाए। यह राजनीति को अपराधीकरण से बचाने के लिए भी एक जरूरी पहलकदमी होगी।