तीन तलाक के मसले पर प्रस्तावित कानून का आॅल इंडिया मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड ने विरोध किया है। बोर्ड का यह रुख बेजा है, पर अप्रत्याशित या हैरानी में डालने वाला नहीं है। तीन तलाक पर रोक लगाने की मांग वाली याचिकाओं पर सर्वोच्च अदालत में सुनवाई के दौरान भी बोर्ड की यही राय थी कि इस तरह की मांग मुसलिम निजी कानून में दखलंदाजी है, और लिहाजा यह उसे मंजूर नहीं है। बोर्ड ने अदालत में दिए अपने हलफनामे में यह तक कहा था कि यह मसला मजहबी है और इस पर अदालत सुनवाई नहीं कर सकती। अब बोर्ड ने उसी आशय और लहजे में प्रस्तावित कानून को नकारा है। अलबत्ता, पहले जहां सिर्फ मजहबी मामले और निजी कानून में दखलंदाजी की दलील बोर्ड की तरफ से दी जा रही थी, वहीं अब बोर्ड ने प्रस्तावित कानून को मुसलिम महिलाओं के खिलाफ भी करार दिया है। इसे संविधान के खिलाफ भी बताया है। रविवार को लखनऊ में बोर्ड की कार्यकारिणी की बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि अगर यह विधेयक कानून बन गया तो इससे मुसलिम महिलाओं को बहुत-सी परेशानियों और उलझनों का सामना करना पड़ेगा। विचित्र है कि यह कहने के साथ ही बोर्ड ने विधेयक को सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मंशा के भी विरुद्ध बताया है।
तीन तलाक के मसले पर सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड खामोश हो गया था। शायद फैसले के व्यापक स्वागत को देखते हुए ऐसा हुआ हो। पर विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल की हरी झंडी मिलने के बाद प्रगतिशील मुसलमानों के बीच से भी संदेह-भरी प्रतिक्रियाएं आई हैं। दरअसल, विधेयक के कई प्रावधान ऐसे हैं जिन्हें लेकर यह सवाल उठ रहा है कि क्या ये मुसलिम महिलाओं के हित में हैं? मसलन, क्या तलाक के कानून को दीवानी के बजाय फौजदारी किस्म का बनाया जाना चाहिए। अगर तीन तलाक के अपराध में मर्द को फौरन तीन साल की जेल हो जाएगी, तो पीड़ित औरत और उस पर निर्भर बच्चों का गुजारा कैसे होगा। पर ये सवाल उठाने के बजाय पहले न्यायिक समीक्षा को और अब कानून बनाने की पहल को गैर-संवैधानिक व दखलंदाजी करार देना यही बताता है कि बोर्ड वक्त के तकाजे को समझने से गुरेज कर रहा है। अगर बोर्ड को सचमुच मुसलिम महिलाओं की भलाई की फिक्र है तो उसे बताना चाहिए कि विधेयक में क्या प्रावधान छोड़े और क्या प्रावधान जोड़े जाएं। पर उसे तो यही मंजूर नहीं है कि कोई कानून बने और उसे यह भी मंजूर नहीं था कि अदालत याचिकाओं पर विचार करे।
यह रवैया क्या मुसलिम महिलाओं के प्रति फिक्रमंदी की देन है? क्या बोर्ड ने अपनी बैठक से पहले मुसलिम महिला संगठनों की भी राय ली थी? तीन तलाक या ‘तलाक-ए-बिद््दत’ के खिलाफ याचिका डालने वाली सायरा बानो का कहना है कि मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड शुरू से ही तीन तलाक का पक्षधर रहा है; वह पुरुषों के वर्चस्व का समर्थन करता है; बोर्ड नहीं चाहता कि महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण हो। यह बयान मुसलिम महिलाओं के हितों का खयाल रखने के बोर्ड के दावे पर सवालिया निशान है। बोर्ड को समझना चाहिए कि हमारा संविधान कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत की बात करता है। दूसरे मामलों की तरह मुसलिम महिलाओं के मामले में भी संविधान की इस बुनियादी मान्यता की अनदेखी नहीं की जा सकती।