जब से केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार आई है, श्रम कानूनों में सुधार के मसले पर श्रमिक संगठनों के साथ उसका टकराव और तीखा हुआ है। रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ श्रमिक संगठनों की बैठक में श्रम सुधारों के प्रस्तावों और खासकर ठेका कर्मचारियों और न्यूनतम वेतन के मसले पर जिस तरह मतभेद और गहरा होने की खबरें आर्इं, उससे यही लगता है कि आने वाले दिनों में दोनों पक्षों में टकराव बढ़ेगा।
इसके बावजूद जिन प्रस्तावों से देश के समूचे श्रमिक वर्ग के जीवन पर गहरा असर पड़ने वाला है, उन पर सरकार कोई स्पष्ट आश्वासन देने को तैयार नहीं है। फिर ऐसी बैठकों का क्या हासिल कि मजदूरों के हितों से संबंधित जो मुद्दे लंबे समय से सार्वजनिक तौर पर उठाए जा रहे हैं, सरकार को उन पर विचार करना जरूरी नहीं लगता। हैरानी की बात है कि ताजा बैठक के बाद जहां श्रममंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने कुछ मुद्दों पर मजदूर संगठनों के साथ सहमति होने की बात कही, वहीं ट्रेड यूनियन के नेताओं ने जोर देकर किसी भी ऐसी आम सहमति की बात को खारिज किया और बारह सूत्री मांगों के समर्थन में दो सितंबर को देशव्यापी हड़ताल की बात कही। ट्रेड यूनियन दरअसल महंगाई, श्रम कानून प्रवर्तन, मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा सहित नियमित और ठेका कर्मचारियों के लिए वेतन और सेवा शर्तों में पूरी तरह समानता लाने के साथ-साथ देश भर में न्यूनतम वेतन पंद्रह हजार रुपए प्रति महीना करने की मांग कर रहे हैं। फिलहाल विभिन्न राज्यों में न्यूनतम वेतन पांच हजार से नौ हजार रुपए तक है।
पिछले कुछ सालों में आम जीवन में अनिवार्य जरूरत की चीजों की कीमतें और दूसरे खर्चे जिस तेजी से बढ़े हैं, उसमें न्यूनतम वेतन में बढ़ोतरी की मांग को अनुचित नहीं कहा जा सकता। फिर यह अपने आप में एक विचित्र स्थिति है कि समान कार्य और जिम्मेदारियों के बावजूद नियमित और अनुबंध पर नियुक्त व्यक्ति की सेवा शर्तों और वेतन के अलावा नौकरी की सुरक्षा के मामले में कई बार बड़ा फासला होता है।
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने श्रम कानूनों में सुधार का जो मसौदा जारी किया है, उसका मकसद व्यापार-उद्योग को आसान बनाने को बढ़ावा देना है। इसमें औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्रावधानों के तहत प्रबंधन को छंटनी में जिस तरह मनमानी की आजादी दी गई है, कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बराबरी लाने संबंधी उपायों को राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिया गया है या और दूसरे कई ऐसे प्रावधान किए गए हैं, उससे स्वाभाविक ही नियोक्ताओं और कॉरपोरेट घरानों को बिना किसी जवाबदेही के बेहिसाब मुनाफे की कीमत पर श्रमिकों की स्थिति कमजोर होने की आशंका जताई जा रही है।
छंटनी के जिस प्रावधान पर जोर दिया जा रहा है, वह अकेले ही रोजगार निर्माण के हालात को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा। नब्बे के दशक में जबसे आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ है, तबसे रोजगार आमतौर पर असंगठित क्षेत्र में सिकुड़ते गए हैं। और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत आज क्या हो चुकी है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसलिए श्रम कानूनों में प्रस्तावित सुधार को अगर मजदूर संगठन ‘श्रमिकों पर गुलामी’ थोपने की कवायद बता रहे हैं तो इस आशंका को गलत साबित करना सरकार की ही जिम्मेदारी है।
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