जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2014: गांधीजी के जन्म दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद सफाई अभियान में शामिल होकर स्वच्छता का जो संदेश दिया है, वह बापू की विरासत को सहेजने की दिशा में एक अहम कदम हो सकता है। गांधीजी आजादी के आंदोलन के दौरान जब राजनीति के मोर्चे पर अंगरेजों से जूझ रहे थे, तब भी अपने आसपास की साफ-सफाई को लेकर उतने ही सचेत रहते थे और सड़क पर चलते हुए गंदगी दिख जाने पर खुद उसकी सफाई में जुट जाते थे। यह उस इलाके के लोगों के लिए एक बड़ा संदेश होता था और इसका असर यह दिखता कि आसपास के लोग साफ-सफाई के काम में शामिल हो जाते थे। गांधीजी की उसी सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुद हाथ में झाड़ू उठाना जरूरी समझा, ताकि उसका संदेश सीधे जनता तक पहुंचे। लेकिन इसका महत्त्व तभी तक बना रह सकता है जब यह अपनी गंभीरता और निरंतरता नहीं खोए। ऐसी खबरें भी आर्इं कि भाजपा सरकार के कुछ मंत्री साफ-सुथरी जगहों पर जानबूझ कर बिखेरे गए कूड़े पर झाड़ू लगा रहे थे। जाहिर है, इस दिखावे का मकसद सिर्फ प्रचार पाना था और अगर यही हाल रहा तो इस अभियान का अंजाम भी पिछली सरकार द्वारा शुरू किए गए अभियान जैसा हो सकता है। खुले में शौच की समस्या पर काबू पाने के लिए हर घर में शौचालय के साथ-साथ स्वच्छता के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के मकसद से यूपीए सरकार ने ‘निर्मल भारत’ अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री की ताजा पहल को उसी का विस्तारित रूप कहा जा सकता है। मगर अब तक के अनुभव यही हैं कि ऐसे अभियान ईमानदारी और प्रतिबद्धता के अभाव में थोड़े ही समय बाद दम तोड़ देते हैं। सरकारी महकमों से लेकर समाज तक में उसे लेकर उदासीनता का भाव नजर आने लगता है।
यह छिपी बात नहीं है कि अपने घर को साफ रखने वाले ज्यादातर लोगों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि उनके दरवाजे के बाहर फैली गंदगी बजबजाती रहती है और उसके लिए वे खुद भी जिम्मेदार होते हैं। दरअसल, यह मान लिया जाता है कि सफाई का काम सिर्फ सरकारी महकमों का है। लेकिन क्या यह अपने नागरिक कर्तव्यों से मुंह मोड़ना नहीं है? इसके अलावा औद्योगिक कचरा भी एक बड़ी समस्या है, जिसने आज हमारे देश की गंगा और यमुना जैसी कई नदियों का स्वाभाविक जीवन छीन लिया है। स्वच्छता या साफ-सफाई के प्रधानमंत्री के ताजा अभियान का विस्तार अगर औद्योगिक कचरे पर भी काबू पाने में होता है, तो यह पहल शायद ज्यादा सार्थक होगी। बहरहाल, यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री जिस स्वच्छता को आंदोलन बनाने की बात कर रहे हैं, उसी काम में लगे लाखों सफाईकर्मियों के बदतर हालात और वेतन या दूसरी सुविधाओं पर ध्यान देना सरकारों को जरूरी नहीं लगता। इसलिए इनकी समस्याओं का भी तत्काल हल निकाला जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले से हर घर में शौचालय की जरूरत पर जोर दिया था। यह खुले में शौच की समस्या का हल है। मगर कानूनन पाबंदी के बावजूद आज भी देश के कई हिस्से में एक खास जाति के बहुत सारे लोग हाथ से मैला साफ करने के काम में लगे हुए हैं। यह किसी भी सभ्य समाज को शर्मिंदा करने के लिए काफी है। इस समस्या को जड़ से खत्म किए बिना स्वच्छता का कोई भी संदेश अधूरा रहेगा।