वे भारत में जनतंत्र और राजनीतिक बदलावों के अद्वितीय सिद्धांतकार थे। हालांकि वे अगर अपने पिता के कहे पर चले होते तो शायद हीरे-जवाहरात के व्यापारी बन गए होते। लेकिन उनके भीतर पैदा हुई ज्ञान की भूख ही थी, जो उन्हें यूरोप लेकर गई और वहां से वे जर्मनी से लंदन तक खाक छानते रहे। पहले उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस में पढ़ाई की और वहां से लौट कर पूरे एशिया में भारतीय राजनीति के एक गंभीर अध्येता के रूप में पहचान बनाई। साठ के दशक के शुरू में उन्होंने अपने लेखों और किताब ‘भारत में राजनीति: कल और आज’ में राज, समाज और राजनीति के अध्ययन के पहले से स्थापित मानदंडों का खंडन किया और परंपरागत समाज के राजनीतिकरण के जरिए आधुनिकीकरण का सिद्धांत पेश किया। खासकर ‘जातियों का राजनीतिकरण’ और ‘भारत की कांग्रेस प्रणाली’ जैसी रचनाओं में उनके सूत्रीकरण आज दुनिया भर में राजनीति के विद्यार्थियों के लिए एक जरूरी संदर्भ हैं।

उनकी लिखी अनेक किताबों और लेखों के सिद्धांत और प्रयोग का महत्त्व उन्हें भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का सबसे प्रभावशाली चिंतक बनाता है। भारत में कांग्रेस के अमूमन स्थायी दिखने वाले वर्चस्व के आधार को जहां उन्होंने भारतीय समाज की विशिष्टताओं से अनुकूलित एक व्यवस्था के रूप में देखा, वहीं साठ के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस की स्थिति के कमजोर होने का तर्क पेश कर दिया था। जिस दौर में समाज विज्ञान के अध्ययनों में वर्ग की अवधारणा का वर्चस्व था, उन्होंने जाति को अपने विश्लेषण का आधार बनाया। सत्तर के दशक के शुरू में उनके समकालीन दूसरे विद्वानों ने उनकी स्थापनाओं को शक की नजर से देखा। लेकिन बाद का भारत का राजनीतिक इतिहास उनके आकलन की प्रासंगिकता का गवाह है कि कैसे देश के विभिन्न दलों ने जाति को अपनी राजनीति का मुख्य प्रश्न बनाया। जाति के प्रश्न के अलावा, हिंदुत्व की धार्मिक राजनीति का उभार, सांप्रदायिकता, भूमंडलीकरण, औद्योगीकरण के बावजूद गरीबी, राजनीति में उभरते शून्य और उसे भरने वाली ताकतें, सामाजिक बदलाव आदि मुद्दों पर उन्होंने जिस स्पष्टता से अपनी राय रखी, वह आने वाले दौर में भारतीय राजनीति के अध्येताओं के लिए संदर्भ बने रहेंगे।

अकादमिक क्षेत्र में रहने के बावजूद उनका कार्यकर्ता का जीवन कभी बाधित नहीं हुआ। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के साथ जुड़ कर उन्होंने राजनीति में सक्रिय भागीदारी दर्ज कराई। नब्बे के दशक में योजना आयोग के सदस्य भी रहे। 1963 में उन्होंने सीएसडीएस यानी विकासशील समाज अध्ययन केंद्र की स्थापना की, जो आज भारत के समाज वैज्ञानिकों के एक महत्त्वपूर्ण समूह के रूप में काम कर रहा है। हमारा लोकतंत्र सिद्धांतों के बरक्स जमीन पर कैसे काम कर रहा है, उसका पता लगाने के लिए वे अपने सैद्धांतिक कौशल के साथ खुद आम जनता के बीच गए। इसी से पता चलता है कि उनके सरोकार कितने ठोस थे। जब उन्हें लगा कि राज्य लोकतंत्र को मजबूत करने के अपने दायित्व से मुंह चुरा रहा है, तो उन्होंने निरंकुश राजनीति का प्रत्यक्ष विरोध करने में भी कोई संकोच नहीं किया। आज अगर किसी को समूचे एशिया में समाज और राजनीति के अंतर्संबंधों का

विश्लेषण करना हो तो उसके लिए रजनी कोठारी की रचनाओं का अध्ययन एक अनिवार्य पहलू होगा। बल्कि कहें कि उनका विमर्श भारतीय राजनीति की परतों को खोलने वाली किताब है, तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी।

 

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