एक सभ्य समाज का मकसद यह होना चाहिए कि अगर कोई व्यक्ति किसी आपराधिक प्रवृत्ति से ग्रस्त है तो उसके सुधार की गुंजाइश निकाली जाए। सजा का सबसे सकारात्मक पहलू यही हो सकता है कि दोषी व्यक्ति सिर्फ कैद का वक्त पूरा नहीं करे, बल्कि जिन मनोग्रंथियों या प्रवृत्ति के चलते उसने कोई अपराध किया था, उसमें बदलाव आए। इस लिहाज से देखें तो वाराणसी के केंद्रीय कारागार में बंद अजीत कुमार ने एक शानदार मिसाल कायम की है।
अपने पड़ोसी की गैर-इरादतन हत्या के आरोप में दस साल की सजा काट रहे दलित समुदाय से आने वाले अजीत कुमार सरोज ने एक तरह से यह दिखाया है कि किसी अपराध में एक तय अवधि के लिए जेल जाना जीवन में कुछ बेहतर करने या अच्छा इंसान बनने के सारे मौके चूक जाना नहीं होता। जेल जाने की वजह से अजीत की बीएससी की पढ़ाई छूट गई। लेकिन वहां भी पढ़ाई का उसका हौसला बना रहा। अच्छी बात यह भी है कि वाराणसी के केंद्रीय कारागार ने इस जज्बे का मान रखा, कारागार अधीक्षक ने इस बंदी को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया।
खूंखार कैदियों के बीच रह कर भी अजीत ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के तहत पर्यटन अध्ययन के पाठ्यक्रम की पढ़ाई की, परीक्षा दी और देश भर में सर्वोच्च स्थान हासिल किया। विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित दीक्षांत समारोह में गोल्ड मेडल प्राप्त कर उसने यह साबित किया कि हर कैदी अपराध का रास्ता छोड़ कर अच्छा इंसान बन सकता है, अगर उसे सुधार के अनुकूल माहौल मुहैया कराया जाया जाए, सकारात्मक व्यवहार मिले।
किसी आपराधिक घटना में संयोग, क्षणिक आवेश या परिस्थितिवश शामिल होने और फिर कैद के बाद व्यक्ति अमूमन अपने अच्छे अतीत को भूल जाता है। कई बार साधारण अपराध में जेल गया कोई व्यक्ति जेल से बाहर आने के बाद ज्यादा गंभीर अपराधों में शामिल हो जाता है।
जाहिर है, जेल के भीतर उसके साथ हुए बर्ताव या संगति ने कोई सकारात्मक बदलाव लाने की जगह उसे और ज्यादा विकृत कर दिया। पर एक सभ्य समाज में सजा या कैद का मकसद सुधार ही होना चाहिए। आज कई देशों में जेलें ‘वर्क-हाउस’ या सुधार-गृह के रूप में जानी जाती हैं। आधुनिक जेलों में कैदियों के विकास के लिए जरूरी सारी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं।
सुधार कार्यक्रमों के अलावा, बेहतर चिकित्सा व्यवस्था, मनोरंजक गतिविधियां, खेलकूद और पढ़ाई जैसी अहम कवायदें खासतौर पर वैसे कैदियों के लिए अनुकूल साबित होती हैं जो आदतन अपराधी नहीं होते। कई बार ऐसा भी होता है कि जेल में रह कर पढ़ाई-लिखाई या दूसरी सकारात्मक गतिविधियों में कामयाबी और सम्मान हासिल करने वाले कैदी को देख कर वहां मौजूद दूसरे कैदियों के भीतर भी सुधार की ललक पैदा होती है। ताजा मिसाल सामने है। जेलें अगर सुधार-गृह साबित होने लगें तो इससे अच्छी बात और क्या होगी!
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