मुंबई की हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का रास्ता साफ कर हाइकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। यों इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है, क्योंकि अदालत का ताजा फैसला कुछ महीने पहले शनि शिंगणापुर मामले में दिए गए उसके फैसले से पूरी तरह मेल खाता है। हैरानी की बात तब होती, जब फैसला कुछ और आता। मुंबई उच्च न्यायालय के ताजा आदेश ने हाजी अली दरगाह में स्त्रियों के प्रवेश पर चली आ रही पाबंदी की विदाई कर दी है।
यह महिलाओं के संघर्ष की जीत तथा समानता के उनके अधिकार का एक और अहम मुकाम है। शनि शिंगणापुर की तरह यह मामला भी परंपरा और आधुनिक मूल्यों के बीच टकराहट का एक बड़ा उदाहरण रहा है। प्रतिबंध के पक्ष में दलीलें भी उसी तरह की थीं। दरगाह न्यास के प्रबंधकों का कहना था कि पाबंदी इस्लाम के उसूलों के मुताबिक लगाई गई थी, जिसमें औरतों को किसी पुरुष संत की मजार पर जाने की इजाजत नहीं होती। न्यास का दूसरा तर्क यह था कि संविधान के अनुच्छेद छब्बीस के तहत धर्मस्थल के प्रबंधन का अधिकार दिया गया है। पर अदालत ने दोनों दलीलें खारिज कर दीं।
जैसे शनि शिंगणापुर में भले कुछ महीने पहले तक महिलाओं के जाने पर प्रतिबंध रहा हो, पर अन्य बहुत सारे शनि मंदिरों में प्रवेश को लेकर महिलाओं और पुरुषों में कोई फर्क नहीं किया जाता था, उसी तरह बहुत सारी दरगाहें स्त्रियों के लिए भी खुली रही हैं। जहां तक धार्मिक स्थान के प्रबंधन के अधिकार का प्रश्न है, बेशक संविधान से यह मान्य है। पर प्रबंधन के अधिकार का यह मतलब नहीं होता कि वह नागरिक अधिकार को बेदखल कर दे। इस तरह के प्रतिबंध उस जमाने की देन हैं जब सार्वजनिक जीवन अधिकांशत: परंपरा या रूढ़ियों से निर्धारित होता था। मगर अब समान नागरिक अधिकार और लैंगिक बराबरी व कानून के समक्ष समानता जैसे मूल्य सार्वजनिक जीवन के निर्धारक तत्त्व हैं। प्रबंधन के नाम पर इन मूल्यों को नकारा नहीं जा सकता।
आस्था के तर्क से धार्मिक स्थलों की एक स्वायत्तता हो सकती है, होनी भी चाहिए, पर इस हद तक नहीं कि वह किसी की धार्मिक आजादी को कुचलने वाली साबित हो, या नागरिकों के बीच भेदभाव का सबब बने। गौरतलब है कि प्रतिबंध हटाने का आदेश देते हुए अदालत ने अपने फैसले में कानून के समक्ष समानता, नागरिक आजादी और गरिमामय ढंग से जीने के अधिकार का भरोसा दिलाने वाले संवैधानिक अनुच्छेदों का हवाला दिया है। इस तरह देखें, तो शनि शिंगणापुर मामले की तरह यह फैसला भी यह सुनिश्चित करता है कि परंपरा के नाम पर बेजा पाबंदी के दिन लद गए हैं। हाजी अली दरगाह में महिलाओं को भी प्रवेश की इजाजत दिए जाने का मुद््दा सबसे पहले ‘भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन’ ने उठाया था और उसी की दो कर्ता-धर्ताओं ने इसके लिए अदालत में जनहित याचिका दायर की थी।
शनि शिंगणापुर मामले में अप्रैल में आए अदालत के फैसले के बाद हाजी अली दरगाह को लेकर भी पहले से चली आ रही मुहिम में तेजी आई। अच्छी बात है कि महाराष्ट्र सरकार ने दोनों मामलों में स्त्रियों के अधिकारों का पक्ष लिया। दरअसल, धर्माधिकारियों और न्यासों तथा प्रबंध समितियों की तरफ से चले आ रहे प्रतिबंधों को बनाए रखने का आग्रह चाहे जितना प्रबल रहा हो, इनके पक्ष में ऐसा जनमत नहीं रह गया है जिसे आम सामाजिक सहमति कहा जा सके। उलटे अधिकांश जनमत बदलाव के पक्ष में दिखता है, लैंगिक भेदभाव की मनाही का संवैधानिक आधार तो पहले से है ही।