संसद का शीतकालीन सत्र यों ही गुजरात चुनाव के कारण देर से शुरू हुआ। तिस पर सत्र शुरू हुआ तो विपक्ष के हंगामे के कारण कई दिन तक लगातार कामकाज बाधित होता रहा। अब संसदीय कार्यवाही चलने से लग रहा है कि संसद का माहौल सामान्य हो गया है। कम से कम, जब तक कोई नया गतिरोध नहीं खड़ा होता, तब तक तो ऐसा मान कर चल ही सकते हैं। पर सवाल यह है कि शीतकालीन सत्र के शुरू के ये दिन जिस तरह से बीते, क्या उससे कोई सबक लिया गया है? सबक यह है कि वाणी पर संयम रखा जाए, और अगर ऐसा नहीं किया जाएगा, तो व्यर्थ के विवाद पैदा होंगे, और किसी को कुछ हासिल नहीं होगा। यों तो शालीनता की उम्मीद हर किसी से की जाती है और की जानी चाहिए, पर जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं उनसे स्वाभाविक ही यह अपेक्षा की जाती है। यहां तक कि राजनीतिक विरोधियों या प्रतिद्वंद्वियों का जिक्र करते समय भी सम्मान दिखाया जाना चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी राजनीति में वाणी पर संयम कम होता जा रहा है। बिगड़ैल बयानों के कारण जब-तब तकरार शुरू हो जाती है। संसद के बाहर तो इस तरह की बयानबाजी होती ही है, संसद के भीतर भी कई बार कोई सदस्य अशालीन टिप्पणी कर देता है, और फिर संसद के कामकाज में व्यवधान पड़ना तय है। इससे संसद का बेशकीमती वक्त जाया होता है और बहुत-से अहम विधायी कार्य आगे खिसक जाते हैं। हंगामे और नोक-झोंक में वक्त बरबाद होने से सदन में बहस और चर्चा के लिए समय कम बचता है। इस तरह बिगड़े बोल हमारे संसदीय लोकतंत्र को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं।
चुनाव नजदीक रहने पर, या चुनाव के दौरान एक दूसरे को घेरने और प्रतिद्वंद्वी पर तंज के फेर में उम्मीदवार और प्रचारक किसी भी हद तक चले जाते हैं। तब जो होता है उसे प्रचार नहीं, दूसरे पर कीचड़ उछालना ही कहा जा सकता है। व्यक्तियों और दलों के अलावा, जातियों और समुदायों के खिलाफ भी ओछे बयान दिए जाते हैं। इससे चुनावी सरगरमी तो बढ़ जाती है, पर चुनाव प्रचार का स्तर गिरता है। कहने को चुनाव को मतदाता-जागरण का अवसर भी कहा जाता है। पर जहां छींटाकशी, निंदा अभियान, ओछे आरोप-प्रत्यारोप, अफवाह और दुष्प्रचार का ही बोलबाला हो, वहां मतदाताओं में राजनीतिक जागरूकता और बढ़ने की क्या उम्मीद की जाए? यह हैरत की बात नहीं है कि हमारी राजनीति में नफरत का उभार नजर आ रहा है। विचारधारा, मुद्दे और जन सरोकार तिरोहित होते जा रहे हैं। इनकी जगह निजी स्वार्थ और घृणा का जोर बढ़ रहा है। राजनीति में मान-मर्यादा और वाणी पर संयम के ह्रास की यही मूल वजह है।
विचारहीनता के दौर में प्रतिद्वंद्वी दलों और प्रतिद्वंद्वी राजनीतिकों के प्रति नफरत ही अपने समर्थकों को जोड़े रखने का आधार बनती जा रही है। ऐसे में, हमारा देश किधर जाएगा? घृणा आधारित राजनीति में हमारे लोकतंत्र का क्या होगा? किसी बिगड़े बोल के कारण जब संसदीय गतिरोध जैसी नौबत आ जाती है, तो खेद जता कर स्थिति को सामान्य बनाने का दबाव बढ़ जाता है, जैसा कि ताजा प्रसंग में भी हुआ। पर स्थिति के सामान्य होते ही, सबक भुला दिया जाता है। और वह सबक यह है कि राजनीति को नफरत-भरे प्रचार, तथ्यहीन बयानों और ओछे किस्म के वार और पलटवार से परे ले जाकर गंभीर मुद््दों और जन सरोकारों पर केंद्रित किया जाए, और वाणी की मर्यादा को बहाल किया जाए। तभी हम अपने लोकतंत्र के अच्छे भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं।