एक अंग्रेजी चैनल को दिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साक्षात्कार ने भारतीय जनता पार्टी को बड़ी राहत पहुंचाई है। मोदी ने सुब्रमण्यम स्वामी की तल्ख टिप्पणियों को सिरे से खारिज कर दिया है। गौरतलब है कि स्वामी पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के पीछे हाथ धोकर पड़े थे, फिर भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम उनके निशाने पर आ गए, फिर आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास। हद तो तब हो गई जब उन्होंने वित्तमंत्री अरुण जेटली पर भी हमला बोलना शुरू किया।
जेटली ने अनुशासन और संयम की सलाह दी, तो स्वामी और कुपित हो गए, कहा कि अगर वे अनुशासन की सीमा पार कर जाएंगे तो तूफान मच जाएगा। मानो उनकी यह सारी बयानबाजी अनुशासन की सीमा में थी! खैर, पार्टी को सूझ नहीं रहा था कि वह स्वामी से कैसे पार पाए। मोदी के ताजा बयान ने पार्टी को इस स्थिति से उबार लिया है। मोदी ने कहा कि रघुराम राजन किसी से कम देशभक्त नहीं हैं। यह राजन पर स्वामी के हमलों का जवाब ही था, जिन्होंने ‘राजन को मानसिक रूप से अभारतीय’ करार देते हुए भारत के हितों के प्रति उनकी निष्ठा पर सवाल उठाए थे। इसके अलावा, मोदी ने यह भी कहा कि कोई अपने को व्यवस्था से ऊपर समझता है तो यह गलत है। जाहिर है, यह अरविंद सुब्रमण्यम से लेकर जेटली तक, सब पर किए गए निंदात्मक प्रहारों का जवाब है। मोदी का यह बयान रिजर्व बैंक के गवर्नर, सरकार के आर्थिक सलाहकार और वित्तमंत्री जैसे नीति निर्धारक पदों की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तो आवश्यक था ही, एक और भी अहम कारण से जरूरी था। यह अटकल लगाई जाने लगी थी कि स्वामी को अपनी बयानबाजी के लिए पार्टी और संघ के कुछ लोगों का समर्थन मिल रहा होगा।
मोदी के बयान ने इस तरह के अनुमान या संदेह पर विराम लगा दिया है, और लगता है अब पार्टी ने भी तय कर लिया है कि स्वामी को सिर पर नहीं चढ़ाना है। दो होने वाले कार्यक्रम, जिनमें स्वामी को बोलना था, रद््द कर दिए गए। पर सवाल है कि स्वामी को सख्त संदेश क्या और पहले नहीं दिया जा सकता था? जब रघुराम राजन के खिलाफ निंदा अभियान में स्वामी जुटे थे, तब पार्टी और सरकार को आरबीआइ गवर्नर की प्रतिष्ठा की फिक्र क्यों नहीं हुई? क्यों यह धारणा बनने दी गई कि चूंकि राजन की नियुक्ति यूपीए सरकार के समय हुई थी, इसलिए उन पर स्वामी के हमले सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं? जब स्वामी मुख्य आर्थिक सलाहकार पर निशाना साधने लगे, तब भी उन्हें कोई चेतावनी नहीं दी गई, बस उनके बयानों को ‘निजी विचार’ कह कर पार्टी ने पल्ला झाड़ने की कोशिश की।
लेकिन यह संभव नहीं रह गया, जब स्वामी ने सीधे अरुण जेटली को निशाना बनाया। विडंबना यह है कि हमला बोलने की अपनी इसी ‘क्षमता’ के कारण पार्टी में उनका ग्राफ तेजी से चढ़ रहा था, पर तब खासकर गांधी-परिवार स्वामी के निशाने पर था। पार्टी में ग्राफ चढ़ा तो स्वामी राज्यसभा में पहुंच गए। अब मोदी के कड़े संदेश के बाद देखना है वे अनुशासन कैसे साधते हैं। जो हो, मर्यादा के खिलाफ जाकर बोलने और इस तरह सरकार व पार्टी की किरकिरी कराने में स्वामी अकेले नहीं हैं। ऐसे प्रसंग दो साल में कई बार घटित हो चुके हैं। अगर पार्टी पहले ही चेत गई होती और ऐसी हालत में उसनेकार्रवाई की कोई नीति बनाई होती, तो शायद सुब्रमण्यम स्वामी हद से बाहर नहीं गए होते।