गृहयुद्ध से ग्रस्त यमन से अपने लोगों को सुरक्षित वापस लाना आसान नहीं था। बचाव के इस मुश्किल काम को भारत ने सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। इसके लिए हमारे विदेश मंत्रालय और वायु सेना, नौसेना की सराहना की जानी चाहिए। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने तैयारियों पर नजर रखने के अलावा कूटनीतिक प्रयासों में भी कोई कसर नहीं रखी। उन्होंने यमन के पड़ोसी देशों के नेताओं से फोन पर बातचीत की और उनका सहयोग सुनिश्चित किया। पिछले साल इराक में आइएसआइएस से छिड़ी लड़ाई के समय भी वहां के बेहद कठिन हालात से भारतीयों को सुरक्षित वापस लाने में उन्होंने तत्परता दिखाई थी। उससे पहले कुवैत पर इराक के हमले, फिर इराक पर अमेरिका के हमले और लीबिया में कज्जाफी के खिलाफ भड़के विद्रोह के समय भी भारतीयों को सुरक्षित वापस लाने में भारत सरकार कामयाब रही थी। बहरहाल, विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह खुद यमन गए। उन्होंने परिस्थिति की जटिलताओं को समझा और बचाव की योजना का पग-पग पर दिशा-निर्देशन किया। वे सेनाध्यक्ष रह चुके हैं, उनके इस अनुभव का भी लाभ मिला होगा।
अब तक कोई साढ़े तीन हजार भारतीय यमन से सुरक्षित वापस लाए गए हैं। यही नहीं, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, स्वीडन, तुर्की समेत अन्य छब्बीस देशों ने भी अपने लोगों को वहां से निकालने में मदद के लिए भारत से अनुरोध किया है। भारत ने इसका सकारात्मक जवाब दिया है। इन देशों के भी सैकड़ों लोग भारत की सहायता से संकटग्रस्त इलाके से बाहर आए हैं। इस कार्य में भारत की मदद पाने वालों में अमूमन सभी पड़ोसी देश भी शामिल हैं। पाकिस्तान ने भी ग्यारह भारतीयों को सुरक्षित निकाला है। विभिन्न देशों की तरफ से सहायता का अनुरोध और उसके अनुरूप भारत का कदम, मानवीय संकट के समय उसकी दरियादिली और बचाव-कार्य की उसकी क्षमता पर अंतरराष्ट्रीय भरोसा, दोनों का परिचायक है। पर भारत के लिए इस संकटपूर्ण हालात में बचाव-कार्य की चुनौती से पार पाना इसलिए भी संभव हो पाया, क्योंकि यमन के गृहयुद्ध की बाबत उसका रुख तटस्थ रहा है। यमन की राजधानी सना सहित सामरिक दृष्टि से वहां के कई महत्त्वपूर्ण इलाकों पर हूती विद्रोहियों का कब्जा हो चुका है, जबकि वहां के राष्ट्रपति रहे अब्दराब्बुह मंसूर हादी और उनके शासकीय सहयोगी सऊदी अरब में पनाह लिए हुए हैं। एक तरफ सऊदी अरब और अमेरिका समेत पश्चिमी ताकतें हादी के साथ हैं, और दूसरी तरफ, हूती विद्रोहियों को ईरान से पैसे और हथियारों की मदद मिल रही है। इस गृहयुद्ध को शिया-सुन्नी टकराव के रूप में भी देखा जा रहा है।
यमन में बड़ी संख्या में भारतीय लोग चिकित्सा, तकनीकी सेवाओं और बुनियादी ढांचे से संबंधित कामों में लगे रहे हैं। यमन से भारत कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस का आयात करता रहा है। वहां दूरदराज के इलाकों में अब भी कई भारतीय फंसे हुए हैं। जो लोग लौट आए हैं उनके लिए भी जिंदगी आसान नहीं है। उनके रोजगार छिन चुके हैं, महीनों से वेतन न मिलने के कारण कोई बचत-पूंजी भी नहीं है, सिर पर अनिश्चित भविष्य का साया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बचाव-कार्य के लिए भारतीय वायु सेना और नौसेना की तारीफ की है। पर कुछ सबक भी लेने की जरूरत है। चीन और फिलीपींस जैसे देश, बाहर काम के लिए जाने वाले अपने लोगों का, उनके संपर्क सूत्रों सहित सारा ब्योरा रखते हैं। पराए देश की संभावित परिस्थितियों के मद्देनजर उनके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं। जबकि हमारे देश में इस मामले में कोताही बरती जाती है। घोर संकट के समय भारत सरकार ने जरूर उनकी तरफ मदद का हाथ बढ़ाया है, पर बाकी समय भी उनके प्रति संवेदनशीलता हमारी विदेश नीति का स्थायी अंग होना चाहिए।
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