राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने यमुना के प्रदूषण के मद्देनजर सरकार और संबंधित महकमों को पहले भी निर्देश दिए थे। लेकिन उसका ताजा फैसला अपूर्व है। न्यायाधिकरण ने पिछले हफ्ते दिए अपने फैसले में प्रदूषक भुगतान सिद्धांत का हवाला देते हुए यमुना को प्रदूषण-मुक्त करने की जिम्मेदारी दिल्ली के सभी लोगों पर डाली है। यमुना की सफाई पर कई चरणों में हजारों करोड़ रुपए बहाए जा चुके हैं। लेकिन यमुना का प्रदूषण कम होना तो दूर, वह और मैली होती गई। इतनी बड़ी धनराशि खर्च करने के बावजूद यमुना की स्थिति न सुधरने की जवाबदेही कभी तय नहीं हो पाई।

यह समस्या वित्तीय तंगी की देन नहीं है, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, योजनाओं के क्रियान्वयन पर निगरानी के अभाव और अनियमितताओं का नतीजा है। इसका खमियाजा दिल्ली के लोग यमुना के प्रदूषण के तौर पर तो भुगतते ही रहे हैं, अब उन्हें यमुना की सफाई की नई योजना के लिए पर्यावरणीय मुआवजा भी देना होगा। हरित पंचाट ने दिल्ली सरकार, दिल्ली जल बोर्ड, तीनों नगर निगमों, कैंटोनमेंट बोर्ड और बिजली कंपनियों को निर्देश दिया है कि वे प्रदूषक भुगतान सिद्धांत के तहत दिल्ली की सीमा में रहने वाले सभी लोगों से पर्यावरण-मुआवजा लें।

राजधानी के लोगों को अपने घरों से निकलने वाले सीवेज पर, संपत्ति कर या पानी के बिल में जो अधिक होगा, उसके बराबर मुआवजा अदा करना होगा। अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले या फिर वे लोग जो पानी का बिल नहीं भरते हैं, सौ से पांच सौ रुपए मुआवजा चुकाएंगे। फैसले के मुताबिक दिल्ली जल बोर्ड को ‘मैली से निर्मल यमुना पुुनरुज्जीवीकरण योजना 2017’ के तहत पर्यावरण-मुआवजे पर डेढ़ महीने के भीतर कार्ययोजना न्यायाधिकरण में पेश करनी होगी। न्यायाधिकरण ने नालों में कूड़ा फेंकने पर भी रोक लगा दी है। बीते शुक्रवार को एनजीटी ने कहा कि नगर निगम कर्मचारी समेत कोई भी व्यक्ति नाले में कूड़ा फेंकता मिले तो उस पर पांच हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाए।

यमुना में कुल प्रदूषण का छिहत्तर फीसद दिल्ली की देन है और इसका प्रमुख कारण फैक्टरियों से निकलने वाला कचरा और सीवर का पानी है। अनेक नाले सीधे यमुना में गिरते हैं। ऐसी स्थिति में कठोर कदम उठाना जरूरी है। लेकिन फैसले की व्यावहारिकता को लेकर कुछ सवाल भी उठे हैं। मसलन, संपत्ति कर अमूमन स्व-आकलन पर आधारित होता है। फिर बहुत-सी अनधिकृत कॉलोनियों और जेजे बस्तियों के लोग सीवर-शुल्क नहीं देते, क्योंकि वहां संबंधित सुविधा ही नहीं दी गई है। कई इलाकों में पानी के कनेक्शन नहीं हैं। गांवों और अनधिकृत कॉलोनियों में रहने वाले लाखों मकान-मालिक संपत्ति-कर नहीं चुकाते हैं। फिर, संपत्ति कर सालाना तौर पर जमा होता है।

ऐसे में मासिक रूप से लिए जाने वाले पर्यावरण-मुआवजे के मद्देनजर यह कैसे तय होगा कि संपत्ति कर और पानी के बिल में से कौन ज्यादा है? बहरहाल, अपनी नदियों के दिनोंदिन और प्रदूषित होते जाने का अपराध-बोध पूरे समाज में पैदा हो और वह इसका निराकरण करने की जिम्मेदारी उठाए, इससे अच्छी बात और क्या होगी। मगर प्रदूषक सिद्धांत भुगतान का जिम्मा भले सभी पर डाला गया हो, यह नहीं कहा जा सकता कि सभी लोग समान रूप से जिम्मेवार हैं। जिन लोगों पर योजनाएं बनाने, उन्हें कार्यान्वित करने, उनके लिए आबंटित धनराशि के उपयोग की जिम्मेदारी रही है, उनकी विशेष जवाबदेही तय होनी चाहिए, ताकि वह मिसाल और सबक बने।

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