संघ लोक सेवा आयोग की तरफ से होने वाली सिविल सेवा परीक्षा के इस बार के नतीजे हमारे समाज के लिए एक खास संदेश लेकर आए हैं, वह यह कि बेटियों को कमतर न समझा जाए। वे योग्यता की ऊंची से ऊंची कसौटी पर खरी उतर सकती हैं, अव्वल भी आ सकती हैं। देश के लिए नौकरशाहों, आला पुलिस अफसरों, राजनयिकों और अन्य प्रथम श्रेणी के अधिकारियों को चुनने वाली इस परीक्षा में पहली बार शीर्ष चार स्थान लड़कियों ने हासिल किए हैं। सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने वाली दिल्ली की इरा सिंघल की उपलब्धि तो और भी प्रेरक है। वे रीढ़ की स्कोलियोसिस नामक बीमारी से पीड़ित हैं। लेकिन यह बाधा उनकी प्रतिभा और जज्बे की राह नहीं रोक सकी और उन्होंने इतिहास रच दिया। उनकी कामयाबी दोहरा कीर्तिमान है।
इस कठिन परीक्षा में पहले नंबर पर आने वाली वे पहली महिला हैं। साथ ही पहली बार एक निशक्त उम्मीदवार ने ऐसी शानदार सफलता हासिल की है। लेकिन उनकी कहानी उनकी लगन और मेधा के साथ ही निशक्तों को होने वाले कटु अनुभवों की भी एक बानगी है। वे लगातार तीन बार राजस्व सेवा के लिए चुनी गई थीं। पर शारीरिक बाधा बता कर केंद्र सरकार ने उनकी तैनाती नहीं की। आखिरकार इरा ने कैट यानी केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में अपील की। कैट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया और इसके बाद ही राजस्व सेवा के लिए उनका प्रशिक्षण शुरू हो सका। बहरहाल, सिविल सेवा परीक्षा के इस बार परिणाम लड़कियों को मिली अपूर्व सफलता के कारण भले खास बन गए हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि आगे बढ़ने की राह में उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि यह कामयाबी सामान्य हकीकत का आईना नहीं है।
सीबीएसइ से लेकर विभिन्न राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे आते हैं, तो अमूमन हर साल दसवीं और बारहवीं की लड़कियां लड़कों से आगे नजर आती हैं। फिर भी आगे की पढ़ाई में उनकी मौजूदगी कम होती दिखती है। पेशेवर विशेषज्ञता वाले विषयों में उनका अनुपात और भी कम नजर आता है। दसवीं और बाहरवीं में लड़कियों का बेहतर परीक्षा परिणाम जहां यह दिखाता है कि वे पढ़ाई-लिखाई के प्रति लड़कों से अधिक संजीदा हैं और पितृसत्तात्मक समाज में खुद को मिले अवसर का मूल्य समझती हैं, वहीं आगे की शिक्षा में उनकी घटती तादाद यह जाहिर करती है कि अपनी क्षमता प्रदर्शित करने के बावजूद बहुत-से परिवार उनकी संभावनाओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं।
समाज अब भी काफी हद तक बेटी को पराये घर की अमानत मानने की संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित है। कमजोर और हाशिये पर जीने वाले तबकों में तो लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई में कितनी बाधाएं हैं, इसकी बहुत-से लोगों को शायद कल्पना भी नहीं होगी। नन्हीं-सी उम्र में ही उन्हें घर संभालने और मजदूरी सहित अन्य पारिवारिक कामों में हाथ बंटाना पड़ता है। कई बार उनकी सुरक्षा की चिंता भी आड़े आती है। कम उम्र में विवाह भी बाधक बनता है। इसलिए हैरत की बात नहीं कि बच्चियों के बीच में पढ़ाई छोड़ने की दर बहुत ज्यादा है। एक अध्ययन के मुताबिक ग्रामीण भारत में सौ में से औसतन एक बच्ची ही दसवीं से आगे पढ़ाई जारी रख पाती है। शहरी भारत में भी स्थिति इससे कोई खास बेहतर नहीं है, जहां यह अनुपात प्रति हजार में चौदह का है। सिविल सेवा परीक्षा में लड़कियों को मिली कामयाबी ऐतिहासिक है, पर यथार्थ का व्यापक फलक नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
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