विभिन्न पदों की खातिर होने वाली भर्ती परीक्षाओं में धांधली और नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद के ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। लेकिन मध्यप्रदेश का व्यापमं घोटाला अपूर्व है। इससे पहले शायद ही किसी घोटाले ने इतने लोगों की जान ली हो। व्यापमं घोटाले से आरोपी या गवाह के तौर पर ताल्लुक रखने वाले लोगों की मौत के सिलसिले ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की दलील है कि हरेक मौत को घोटाले से नहीं जोड़ा जा सकता। सही है कि मामले की जांच के दौरान कोई स्वाभाविक मौत हो सकती है। फिर व्यापमं से जुड़े नामों की फेहरिस्त भी लंबी है। लेकिन आरोपियों और गवाहों समेत चालीस से ज्यादा लोगों की मौत क्या महज संयोग है? पिछले तीन दिन में चार मौतें हुई हैं।

घोटाले की खोज-खबर लेने के दौरान एक प्रमुख टीवी चैनल के पत्रकार अक्षय सिंह की शनिवार को मौत हो गई। इसके एक दिन बाद जबलपुर के नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज के डीन और व्यापमं घोटाले की जांच समिति के सदस्य डॉ अरुण शर्मा दिल्ली के एक होटल में रहस्यमय स्थितियों में मृत पाए गए। दो दिन पहले ही शर्मा ने घोटाले से संबंधित दो सौ दस्तावेज एसआइटी को सौंपे थे। फिर, सोमवार को एक महिला सब-इंस्पेक्टर नेतालाब में कूद कर आत्महत्या कर ली, जिसकी भर्ती इसी साल फरवरी में व्यापमं के जरिए हुई थी। इसके कुछ घंटे बाद एक हेड कांस्टेबल की संदिग्ध ढंग से मौत होने की खबर आई, जो आरोपी था और जिससे तीन महीने पहले एसआइटी ने पूछताछ की थी।

यह सिलसिला कहां जाकर खत्म होगा! यह सब संयोग मात्र नहीं हो सकता। जाहिर है कि घोटाले के सूत्रधार सबूतों को नष्ट करने और जांच को अंतहीन बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। घोटाले में शामिल होने के आरोप कई प्रभावशाली लोगों पर भी हैं और उन्हें यह भय सताता होगा कि अगर मामले की जांच तर्कसंगत परिणति तक पहुंचेगी तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। व्यापमं घोटाला 2013 में उजागर हुआ, पर यह कई साल से चल चल रहा था।

मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले और सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए एक-एक उम्मीदवार से लाखों रुपए वसूले गए। उम्मीदवारों की जगह दूसरों ने परीक्षाएं दीं। राज्यपाल के बेटे का भी नाम आया और राज्य के पूर्व शिक्षामंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की गिरफ्तारी हुई। राजभवन के संदेह के घेरे में आने के कारण, राज्यपाल को पद से हटाने की मांग करने वाली याचिका सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने मंजूर कर ली। पर क्या मुख्यमंत्री की कोई जवाबदेही नहीं बनती? गौरतलब है कि व्यापमं यानी मध्यप्रदेश का व्यावसायिक परीक्षा मंडल राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग के तहत आता है, जिसकी कमान सीधे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के हाथ में रही है।

बड़े पैमाने पर धांधलियां तो हुर्इं ही, सामान्य प्रशासन विभाग ने परीक्षा के नियम भी बदल दिए, जो कि चौहान की मंजूरी के बगैर नहीं हुआ होगा। बरसों से गड़बड़ियां चल रही थीं, जिसमें शिक्षा विभाग के मंत्री से लेकर अनेक विभागों के आला अफसर, बिचौलिये और कई राजनीतिक शामिल थे, फिर भी मुख्यमंत्री को भनक तक नहीं लगी? या, वे जान-बूझ कर आंख मूंदे हुए थे? आरोप तो यह भी है कि खुद मुख्यमंत्री के कई करीबियों और रिश्तेदारों ने बेजा फायदा उठाया। शिवराज सिंह चौहान को भाजपा आदर्श मुख्यमंत्री और उनके कामकाज को सुशासन की मिसाल बताती रही है। पर यह कैसा सुशासन है जिसने घपले और क्रूरता का रिकार्ड कायम किया है! यह सब किसी गैर-भाजपा शासित राज्य में हुआ होता, तो संभवत: भाजपा जोर-शोर से मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग उठाती। पर इस मामले में सीबीआइ जांच की मांग भी उसे गवारा नहीं है। और प्रधानमंत्री, ललित मोदी मामले की तरह व्यापमं कांड पर भी चुप्पी साधे हुए हैं!

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