विदेश राज्यमंत्री वीके सिंह ने एक बार फिर अपने आपत्तिजनक बयान से सरकार की किरकिरी कराई है। यमन से भारतीयों की सुरक्षित स्वदेश वापसी के अभियान की देखरेख का जिम्मा उन्हें सौंपा गया था और इसे उन्होंने बखूबी अंजाम भी दिया। लेकिन इस बारे में पूछे गए एक पत्रकार के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह काम पाकिस्तानी उच्चायोग के समारोह में शिरकत करने से कम रोमांचक था। जब उनकी इस बात पर विवाद खड़ा हुआ, तो उन्होंने ट्विटर पर टिप्पणी की, जिसमें मीडिया के लिए ‘प्रेसटीट्यूट्स’ शब्द का इस्तेमाल किया। मीडिया के प्रति इससे अधिक अपमानजनक भाषा और क्या हो सकती है, कि अंगरेजी में वेश्या का अर्थ देने वाले शब्द की तर्ज पर गढ़े गए शब्द के जरिए उसकी तरफ इशारा किया जाए! वीके सिंह पहले भी यह लफ्ज इस्तेमाल कर चुके हैं। तो क्या यह उनकी मानसिकता को दर्शाता है? क्या मंत्री होने के बाद भी उन्होंने वाणी में संयम बरतना नहीं सीखा है?
प्रेस या मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र सरकार का कोई मंत्री इस महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्था के प्रति घोर असम्मान का प्रदर्शन करे। उनकी टिप्पणी से पल्ला झाड़ते हुए भाजपा ने कहा है कि ट्विटर पार्टी का मंच नहीं है। पर यह तो और गंभीर बात है कि वीके सिंह ने मीडिया के बारे में जो कहा उसके लिए कहीं ज्यादा व्यापक मंच का इस्तेमाल किया। फिर उनकी उस बात को उनके सरकारी ओहदे से अलग करके नहीं देखा जा सकता, क्योंकि विदेश राज्यमंत्री के तौर पर उनसे पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर को लेकर उठे विवाद के संदर्भ में उन्होंने वह टिप्पणी की। अनेक राजनीतिक दलों के अलावा ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन ने भी इसकी निंदा की है। विपक्ष ने यह सवाल भी उठाया है कि ऐसे व्यक्ति को मंत्रिमंडल में क्यों रहना चाहिए जिसे मंत्री-पद की मर्यादा का तनिक खयाल नहीं है। एक समय वीके सिंह ने नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति पर सवाल उठा कर भाजपा नेतृत्व को परेशानी में डाल दिया था। कुछ दिन पहले उन्होंने सरकार के प्रतिनिधि के रूप में पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस पर पाकिस्तानी उच्चायोग में हुए समारोह में हिस्सा लिया था। इसके दूसरे दिन उन्होंने ट्विटर के माध्यम से सांकेतिक भाषा में अपनी नाखुशी जाहिर की।
जब वे मंत्री के तौर पर एक सरकारी दायित्व निभा रहे थे, तो उसे लेकर नाराजगी जताने का क्या मतलब था? इस पर हंगामा हुआ तो वीके सिंह ने सारा दोष मीडिया पर डाल दिया। अब वे यमन से भारतीयों की वापसी की जिम्मेदारी को पाकिस्तानी उच्चायोग के समारोह में अपनी हिस्सेदारी से कम रोमांचक बता रहे हैं! दोनों घटनाओं में क्या साम्य है कि ऐसी तुलना उन्होंने कर डाली? क्या वे अब भी पाकिस्तानी उच्चायोग के समारोह में शिरकत के लिए भेजे जाने पर अपना क्षोभ प्रदर्शित करना चाहते हैं? सरकार की नीति या फैसले से मंत्री के व्यवहार में संगति दिखनी चाहिए। अगर वीके सिंह इसके लिए तैयार नहीं हैं, तो उन्हें मंत्री-पद पर क्यों बने रहना चाहिए? अपने बयान से सरकार की फजीहत कराने वाले वीके सिंह अकेले मंत्री नहीं हैं। इससे पहले साध्वी निरंजन ज्योति और गिरिराज सिंह भी इसी तरह के अपने जुबानी करतब दिखा चुके हैं। यह उस सरकार का हाल है जो संस्कृति का दम भरते नहीं थकती।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta