संघीय व्यवस्था में यह स्वाभाविक है कि दो राज्यों के बीच तनाव पैदा हो, तो वे केंद्र से हस्तक्षेप करने और झगड़ा सुलझाने की गुहार लगाएं। लेकिन आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के मुख्यमंत्रियों के बीच चल रही तकरार में केंद्र ने चुप्पी साध रखी है। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले और उनसे विवाद के निपटारे में मदद चाही। उनकी पार्टी के कई प्रतिनिधिमंडल भी केंद्र से यह गुजारिश कर चुके हैं। लेकिन केंद्र ने खुद बीच-बचाव करने के बजाय स्थिति को सामान्य बनाने की जिम्मेवारी राज्यपाल पर डाल दी है।
राज्यपाल इएसएल नरसिम्हन ने दोनों राज्यों के बीच वित्तीय मसलों सहित कई विवाद सुलझाने में अहम भूमिका निभाई है। पर ताजा मामले में पड़ना न तो राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है न उन्हें यह शोभा देगा। इसे तो राजनीतिक स्तर पर ही निपटाया जा सकता है। चंद्रबाबू नायडू की अगुआई वाली आंध्र सरकार में भारतीय जनता पार्टी भी साझेदार है। इसलिए नायडू को और भी उम्मीद रही होगी कि केंद्र उनकी बात को तवज्जो देगा। मगर केंद्र के रुख ने नायडू को निराश किया है।
दरअसल, तेलंगाना के विधान परिषद चुनाव में रिश्वत की पेशकश के मामले में जिस तरह तेलुगू देशम के एक विधायक का नाम आया है और एक टेप का खुलासा होने के बाद जिस तरह खुद चंद्रबाबू नायडू पर इस मामले में लिप्त होने के आरोप लगे हैं, उसके चलते केंद्र ने नायडू से दूरी दिखाने में ही भलाई समझी है। इस कांड से साख का संकट झेल रहे नायडू ने आरोप लगाया है कि तेलंगाना सरकार उनके फोन टेप कर रही है। अगर इन आरोपों को लेकर भाजपा संजीदा है, तो केंद्र ने अब तक जांच कराने की पहल क्यों नहीं की। नायडू से केंद्र की नाराजगी की एक वजह और हो सकती है।
केंद्र का दावा है कि उसने पिछले एक साल में आंध्र प्रदेश को अनुदान देने में उदारता दिखाई, जबकि नायडू कई बार यह कह चुके हैं कि केंद्र ने राज्य के लिए कुछ नहीं किया। तेलुगू देशम और भाजपा के बीच बढ़ते तनाव का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि तेलंगाना विधान परिषद के चुनाव में तेलुगू देशम पार्टी खाली हाथ रही, क्योंकि भाजपा के विधायकों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। बहरहाल, दोनों पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच चल रहे झगड़े की जड़ आंध्र प्रदेश के बंटवारे से पैदा हुई खटास में है। हैदराबाद के लिए दोनों पक्ष लड़ते रहे। फिर इसका समाधान यह निकला कि दस साल तक हैदराबाद दोनों राज्यों की राजधानी रहेगा।
मगर कर्मचारियों से लेकर नदियों के पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के बंटवारे के प्रश्न अब भी अनसुलझे हैं। इसका प्रतिकूल असर प्रशासन पर भी पड़ा है और विकास-कार्यों पर भी। जाहिर है, इसका नुकसान सबसे ज्यादा दोनों राज्यों की जनता को हो रहा है। भाजपा कह सकती है कि यूपीए सरकार ने आंध्र प्रदेश के विभाजन के मसले को हल करने में परिपक्वता नहीं दिखाई, जिसके चलते काफी तनाव पैदा हुआ, हिंसा भी हुई, और आज भी दोनों पक्ष झगड़े में फंसे हुए हैं।
यूपीए सरकार की जो भी गलतियां या कमियां रही हों, उन्हें मिल-बैठ कर दूर करने की जिम्मेदारी अब दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केंद्र की है। पर तेलंगाना विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य को तेलुगु देशम के एक विधायक की तरफ से रिश्वत की पेशकश का आरोप एक आपराधिक मसला है, जो कि तब और बड़ा हो जाता है जब आंध्र के मुख्यमंत्री पर भी अंगुली उठ रही हो। तेलुगू देशम के साथ गठबंधन और आंध्र की सत्ता में साझेदार होने के कारण भाजपा अपनी नैतिक और राजनीतिक जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta