क्रिकेट विश्व कप के सेमीफाइनल में आस्ट्रेलिया से हमारी टीम की पराजय पर भारतीयों में मायूसी छा जाना स्वाभाविक है। लेकिन जो आक्रोश भरी और भद्दी प्रतिक्रियाएं जाहिर की गर्इं उन्हें स्वस्थ खेल-भावना का परिचायक नहीं कहा जा सकता। यह सही है कि जिस तरह भारतीय टीम ने सात मैचों में अपने कौशल का सराहनीय प्रदर्शन किया उससे उसके जीतने की उम्मीद काफी बढ़ गई थी। क्रिकेट प्रेमियों में भरोसा जगा था कि भारत आस्ट्रेलिया को भी उसी तरह धूल चटा देगा जैसे पिछले सात मैचों में दूसरी टीमों के साथ किया था। इस उत्साह में यह भी भुला दिया गया कि पहले के मैचों में आस्ट्रेलिया के सामने भारत का प्रदर्शन बहुत सराहनीय नहीं था। खासकर टीवी चैनलों पर पिछले कई दिनों से चल रहे विश्लेषणों में भी इस पहलू पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया। नतीजा यह हुआ कि भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में भारत को जीतते देखने की उम्मीद सारी तार्किक सीमाएं पार कर गई। भारी संख्या में भारतीय मूल के लोग सेमीफाइनल देखने सिडनी पहुंचे। मैच के टिकटों की आॅनलाइन खरीद के आंकड़ों को देख कर आस्ट्रेलियाई टीम भी हैरान रह गई। उसने आशंका जताई थी कि कहीं सिडनी में भी वैसा ही माहौल न बन जाए जैसा कभी कोलकाता के ईडन गार्डन में भारतीय टीम को हारते देख कर बन गया था।

भारतीय क्रिकेट प्रेमियों में इस तरह उत्साह और फिर मायूसी नई बात नहीं है। दरअसल, खेल को खेल की तरह देखने और सराहने की संस्कृति यहां अभी विकसित नहीं हो पाई है। अपनी टीम की हार से भारत में पैदा हुई निराशा समझी जा सकती है, पर यह भी देखने की जरूरत है कि उसने एक बहुत मजबूत टीम से शिकस्त पाई है। पूल मैचों के दौरान उसका प्रदर्शन शानदार रहा, इस पर गर्व किया जाना चाहिए। आस्ट्रेलिया को हराना भारतीय टीम की बड़ी उपलब्धि होती, मगर जरूरी नहीं कि हर बार किसी टीम की रणनीति मनमाफिक बैठे या फिर हर खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन करे। प्रतिद्वंद्वी टीम की भी अपनी रणनीति होती है। आस्ट्रेलिया ने टॉस जीत कर पहले बल्लेबाजी का फैसला किया। उसने गेंदबाजों को छकाना शुरू कर दिया तभी से भारतीय टीम पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनना शुरू हो गया था। आस्ट्रेलिया ने तीन सौ अट्ठाईस रनों का पहाड़ खड़ा कर दिया, तो भारतीय बल्लेबाजों के लिए उस चुनौती से पार पाना आसान नहीं था।

क्रिकेट प्रेमियों की आकांक्षाओं और संचार माध्यमों पर लगातार उछाले जा रहे विश्लेषणों से भारतीय टीम पर पहले से ही मनोवैज्ञानिक दबाव बना हुआ था। ऐसी स्थिति में जिन बल्लेबाजों से बहुत उम्मीद लगाई गई थी, वे भी लचर साबित हुए। पर इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि भारतीय टीम ने जान-बूझ कर कमजोर प्रदर्शन किया। जिस तरह भारतीय टीम और कुछ खिलाड़ियों को कोसा जा रहा है और उनके खिलाफ अभद्र टिप्पणियां की जा रही हैं, वे समझदार खेल प्रेमियों की निशानी नहीं कही जा सकतीं। ऐसा उन्माद पाकिस्तानी टीम से भारतीय टीम के मुकाबलों के दौरान प्राय: देखा जाता रहा है। उसे भी सही नहीं ठहराया जा सकता। एक खिलाड़ी के निजी संबंध को निशाना बना कर सोशल मीडिया पर चला प्रलाप स्त्री-विरोधी भी बहुत था। खेल को खेल-भावना से खेलने देने और देखने-विश्लेषित करने की संस्कृति विकसित करने की जरूरत है।

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