सरकार की ओर से अक्सर जारी किए जाने वाले विज्ञापनों और उन पर आने वाले भारी खर्च को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं कि जनता के पैसे का ऐसा इस्तेमाल क्यों हो। इस मसले पर दायर याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को जो फैसला सुनाया उसका निहितार्थ भी यही है। सरकार की ओर से जारी विज्ञापनों में मंत्रियों और नेताओं की तस्वीरें इस तरह प्रकाशित की जाती हैं कि वे उनकी उपलब्धि जान पड़ें। जाहिर है, इस तरीके से किसी का महिमामंडन करदाताओं के पैसे का भी दुरुपयोग है और सत्ता का भी। करीब साल भर पहले अदालत ने माधवन मेनन समिति का गठन कर इस मसले पर सिफारिशें मांगी थीं। इसी आलोक में समिति ने सरकारी विज्ञापनों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के अलावा राज्यपाल और मुख्यमंत्री की भी तस्वीरें छापे जा सकने की राय दी थी। लेकिन अदालत ने अपने ताजा दिशा-निर्देश में सरकारी विज्ञापनों में सिर्फ राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश की तस्वीरें ही लगाने की इजाजत दी है।
हालांकि अदालत ने यह भी कहा है कि वे चाहें तो तय कर सकते हैं कि किसी सरकारी विज्ञापन में उनकी तस्वीर लगाई जाए या नहीं। यानी एक तरह से इसमें यह निहित है कि इस तरह प्रकाशित तस्वीरों के लिए उनकी भी जवाबदेही बनती है। इस फैसले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम को अपवाद माना गया है। कई बार किसी महान मानी जाने वाली शख्सियत को श्रद्धांजलि देने या उनके प्रति सम्मान प्रकट करने की खातिर एक ही तरह के संदेशों के लिए विभिन्न महकमे अलग-अलग विज्ञापन प्रकाशित करवाते हैं। क्या यह फिजूलखर्ची नहीं है? इस मामले में अदालत ने साफ कहा है कि अगर संदेश या सामग्री एक हो तो एक ही विज्ञापन से काम चल जाना चाहिए। जहां अनावश्यक विज्ञापनों से अदालत ने बचने का निर्देश दिया है वहीं यह भी कहा है कि राष्ट्रीय बचत योजना, बीमारियों से बचाव या बच्चों के टीकाकरण जैसे जनहित से संबंधित विज्ञापन दिए जा सकते हैं।
अक्सर यह देखा जाता है कि जो पार्टी सत्ता में रहती है, वह सरकारी विज्ञापनों को कई बार अपने राजनीतिक प्रचार-प्रसार और चुनावी अभियान का जरिया भी बना लेती है। शायद यही वजह है कि चुनाव आयोग ने भी लोकसभा या किसी भी राज्य की विधानसभा के चुनाव होने से छह महीने पहले से ही उपलब्धियां बताने वाले तमाम सरकारी विज्ञापनों के प्रकाशन-प्रसारण पर रोक लगाने की हिदायत दी है। बहरहाल, इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला महत्त्वपूर्ण है। इससे सरकारी विज्ञापनों के जरिए सत्ताधारी पार्टियों की परोक्ष राजनीति पर लगाम लगने के साथ-साथ जनता के पैसे के बेजा इस्तेमाल पर रोक लग सकने की गुंजाइश बनी है। लेकिन संभव है कि इसके राजनीतिक पहलू पर एक नई बहस खड़ी हो जाए। भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रणाली में यह जरूरी नहीं कि केंद्र और अलग-अलग राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सरकार हो। अनेक राज्यों में ऐसी पार्टियां सत्तासीन हैं जो केंद्र में विपक्ष में हैं। उन्हें यह कैसे स्वीकार्य होगा कि उनके सरकारी विज्ञापनों में प्रधानमंत्री की तस्वीर तो हो, पर मुख्यमंत्री की नहीं? राज्य में कार्यपालिका का प्रमुख मुख्यमंत्री ही होता है। राज्य-सूची में आने वाले काम राज्य सरकार के ही जिम्मे होते हैं। कई योजनाएं भी राज्य-स्तर की ही होती हैं। यही नहीं, जनहित जन-जागरण का भी कोई संदेश राज्य-विशेष के मद््देनजर हो सकता है। ऐसे में राज्य सरकार के किसी विज्ञापन में केवल प्रधानमंत्री की तस्वीर हो, इसका क्या औचित्य है?
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