विपक्षी दलों के दबाव में आखिरकार केंद्र ने जातिवार जनगणना के वर्गीकरण के लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर दिया है। पखवाड़े भर पहले वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सामाजिक और आर्थिक जनगणना के आंकड़े पेश किए थे, जबकि जातिवार जनगणना को सार्वजनिक करने से रोक लिया गया था। इस पर सपा, जद (एकी), राजद और द्रमुक ने विरोध जताया। लालू प्रसाद यादव ने राजभवन तक रैली निकाल कर मांग की कि केंद्र जातिवार जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करे, तो नीतीश कुमार ने भी उनका समर्थन किया। फिर राजद ने सत्ताईस जुलाई को बिहार बंद का आह्वान किया है। माना जा रहा है कि बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनजर केंद्र ने जातिवार जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने से परहेज किया, क्योंकि इससे भाजपा को अपना जनाधार खिसकने का भय है। इसके उलट राजद और जद (एकी) इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर सकते हैं।
जबकि केंद्र सरकार का तर्क है कि राज्यों से जातिवार जनगणना के माकूल आंकड़े न मिल पाने के कारण इसे सार्वजनिक करने में परेशानियां आ रही हैं। हालांकि हकीकत यह है कि केंद्र में सत्तारूढ़ कोई भी दल जातिवार जनगणना से इसलिए परहेज करता रहा है कि उसके आंकड़े सरकार के लिए परेशानी पैदा कर सकते हैं। पिछली बार भाजपा सहित लगभग सभी राजनीतिक दलों ने यूपीए सरकार पर दबाव बनाया था कि आरक्षण और सामाजिक-आर्थिक सुविधाओं के मद्देनजर नीतियां निर्धारित करने को लेकर जैसी अड़चनें पैदा होने लगी हैं, उसमें जातिवार जनगणना कराना जरूरी है। अब वही भाजपा सत्ता में आने पर इसे सार्वजनिक करने से बचने की कोशिश कर रही है।
दरअसल, पिछले कुछ दशकों में जिस तरह जातियों का समीकरण राजनीति में अहम होता गया है, उसमें वे सभी पार्टियां जातिवार जनगणना से बचने की कोशिश करती हैं, जिनका आधार मुख्य रूप से जातियों पर नहीं टिका है। हालांकि पिछले आम चुनावों में भाजपा ने भी पिछड़े वर्गों को आकर्षित करने की कम कोशिश नहीं की। इसके अलावा आरक्षण का मसला केंद्र और राज्य सरकारों के लिए असहज करने वाला है। अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए आरक्षण का पैमाना लगभग स्थिर हो चुका है। परेशानी अन्य पिछड़ा वर्ग को लेकर पैदा होती है। अक्सर कुछ जातियों को इसमें शामिल करने की मांग के चलते संविधान में तय पैमाने के उल्लंघन का खतरा है।
इसीलिए आम सहमति बनी थी कि जातिवार जनगणना के जरिए अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों की वास्तविक स्थिति की जानकारी जुटाई जाए और फिर संविधान संशोधन के जरिए उनके सामाजिक-आर्थिक हितों के लिए व्यावहारिक कानून बनाया जाए। भाजपा के लिए ऐसा करना आसान नहीं लगता। इससे अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने वाले दलों का दबाव बनेगा। फिर जो कानून या नियम बनेगा उसका लाभ भाजपा के बजाय उन्हीं दलों को मिलेगा। यह भी हो सकता है कि भाजपा को आरक्षण के दायरे में न आने वाली जातियों की नाराजगी भी झेलनी पड़े। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं है कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अगुआई में विशेषज्ञ समिति का गठन कर एक तरह से केंद्र ने जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों को कुछ समय के लिए परदे में रखने का रास्ता अख्तियार किया है। मगर इससे पिछड़े वर्गों के प्रति उसकी संजीदगी पर सवाल समाप्त नहीं हो जाते।
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