सर्वोच्च न्यायालय एक बार फिर बातचीत के जरिए अयोध्या विवाद को सुलझाने पर विचार कर रहा है। हालांकि पहले भी उसने कहा था कि दोनों पक्ष इस विवाद को आपसी सहमति से सुलझा लें, तो राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया जल्दी शुरू हो सकेगी। मगर तब अपेक्षित पहल नहीं हो सकी थी। अब न्यायालय ने कहा है कि दोनों पक्ष अपने मध्यस्थों की सूची सौंपें, ताकि वह निर्णय कर सके कि बातचीत के जरिए इस मसले का हल निकाला जा सकता है या नहीं। इसके लिए आठ हफ्ते का समय दिया गया है। हालांकि इस निर्देश पर मुसलिम संगठन सहमत दिख रहे हैं, पर खुद राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन कर रहे संगठनों की राय भिन्न है। विपक्ष भी कह रहा है कि इस मौके पर मध्यस्थता के जरिए हल निकालने की पहल उचित नहीं होगी। हालांकि मध्यस्थों की सूची सौंपने की जो अवधि तय की गई है, उस समय तक आम चुनाव संपन्न हो चुके होंगे। फिर उन मध्यस्थों को चार हफ्ते के भीतर अपनी राय देनी होगी। इस तरह विपक्ष का भय बेवजह है। अयोध्या मामले का निपटारा बातचीत या फिर अदालत के फैसले से जैसे भी हो, जल्दी हो जाए, तो अच्छा।
राम मंदिर निर्माण में सबसे बड़ी उलझन वहां की जमीन को लेकर है। उस जमीन के कुछ हिस्से पर सुन्नी वक्फ बोर्ड का दावा है और कुछ पर निर्मोही अखाड़े का। राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन करने वाले संगठनों का कहना है कि वह पूरी जमीन राम मंदिर निर्माण के लिए मिलनी चाहिए। जमीन संबंधी विवाद को सुलझाने के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट लंबे समय तक जद्दोजहद करता रहा। फिर सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर इससे संबंधी सभी मामलों को एक साथ जोड़ा गया। पर अंतिम निर्णय तक पहुंचने में मुश्किलें बनी हुई हैं। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने बातचीत के जरिए इसके समाधान पर विचार किया है। हालांकि यह पहला मौका नहीं है, जब मध्यस्थों के जरिए इस समस्या का हल निकालने का प्रयास किया जा रहा है। इलाहाबाद हाइकोर्ट तीन बार यह तरीका आजमा चुका है, पर कोई नतीजा नहीं निकल पाया। अब एक बार फिर जो मध्यस्थ तय होंगे, वे कहां तक किसी मसले पर एकमत हो पाएंगे, देखने की बात होगी।
मध्यस्थों के जरिए किसी निर्णय पर पहुंचने में एक मुश्किल यह है कि कैसे कुछ लोगों के मत के आधार पर दोनों समुदायों के बड़े वर्ग की भावनाओं को समझा जा सकेगा। कुछ मुसलिम प्रतिनिधि इस बात पर राजी देखे गए हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड के हिस्से की जमीन के बराबर जमीन कहीं और दे दी जाए, जहां वे मस्जिद बना सकें, पर कई प्रतिनिधि इस पर राजी नहीं हुए। इसी तरह हिंदू महासभा जैसे हिंदू संगठनों में भी कई बिंदुओं पर मतभेद नजर आता है। इसलिए यह दावा करना मुश्किल है कि दोनों पक्षों की तरफ से तय किए गए मध्यस्थों की राय उनके समूचे वर्ग की राय मान ली जाएगी। हालांकि अभी सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थों की राय के आधार पर अपना निर्णय सुनाने को नहीं कहा है। अभी वह तय करेगा कि बातचीत के जरिए इसका समाधान निकालने की पहल कितनी कारगर साबित हो सकती है। दरअसल, राम मंदिर विवाद को राजनीतिक रंग दे दिए जाने के बाद से आपसी रजामंदी से इस समस्या को हल करना कठिन होता गया है। इसलिए इसके निपटारे को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी दरकार है।